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निशीथ सूत्र
श्रद्धा का भाव भिक्षु के मन में सदैव बना रहे, यह आवश्यक ही नहीं है वरन् उसके साधनामयजीवन के उत्तरोत्तर विकास के लिए अत्यन्त उपादेय है। 'विनय' की जैन धर्म के अतिरिक्त अन्यान्य धर्मों में भी बहुत उपयोगिता है। बौद्ध धर्म में तो भिक्षुओं के आचार को विनय पद द्वारा ज्ञापित किया जाता है। भिक्षुओं के आचार का ग्रंथ इसीलिए "विनयपिटक' पद द्वारा अभिहित हुआ है। उसमें भिक्षुओं के बहुविध आचार का दिग्दर्शन है। जैन धर्म में जो स्थान आचारांग का है, वही बौद्ध धर्म में विनयपिटक का है। विनय, वैदिक धर्म में भी. गुरु के प्रति, बड़ों के प्रति अत्यन्त महत्त्वपूर्ण माना गया है, यहाँ तक कहा है -
गुरुर्ब्रह्मा गुरुर्विष्णुः, गुरुर्देवो महेश्वरः। गुरुः साक्षात्परब्रह्म, तस्मै श्री गुरवे नमः॥
इसी संदर्भ में इन सूत्रों में आचार्य, उपाध्याय आदि गुरुजनों के प्रति प्रमादवश निष्पद्यमान अविनीताचरण को प्रायश्चित्त योग्य बतलाया गया है। जो भिक्षु चलने-फिरने, उठने-बैठने आदि में जागरूक नहीं होता, उस द्वारा प्रमाद जनित त्वरा, शीघ्रता, आकुलता इत्यादि के कारण आचार्य, उपाध्याय के देह, उपधि, पात्र आदि के संघटनात्मक संस्पर्श इत्यादि का होना आशंकित है। यद्यपि ये दिखने में छोटे अवश्य प्रतीत होते हैं, किन्तु वास्तव में मनोगत चांचल्य के द्योतक हैं। ऐसा होने पर 'मिच्छामि दुक्कड' - मिथ्या मे दुष्कृतम् - ऐसा बोले अर्थात् मेरे द्वारा आचरित मिथ्या हो। मेरे द्वारा जो यह भूल हुई है, यह पुनः न हो। यों विनय पूर्वक अनुज्ञापित कर भिक्षु को आत्म सम्मान करना चाहिए। ____ यद्यपि आसन आदि पदार्थ वंदनीय नहीं है, तथापि पैर के स्पर्श से हुए अविनय की निवृत्ति के लिए हाथ से स्पर्श कर विनय भाव प्रगट करना चाहिए, यह सूत्र का आशय है।
मर्यादातिरिक्त उपधि विषयक प्रायश्चित्त जे भिक्खू पमाणाइरित्तं वा गणणाइरित्तं वा उवहिं धरेइ धरेंतं वा साइजइ॥४१॥
कठिन शब्दार्थ - पमाणाइरित्तं - प्रमाण के अतिरिक्त, गणणाइरित्तं - गणनातिरिक्तगणना के अतिरिक्त।
भावार्थ - ४१. जो भिक्षु (विहित) प्रमाण या गणना से अतिरिक्त उपधि धारण करता है अथवा धारण करने वाले का अनुमोदन करता है, उसे लघु चौमासी प्रायश्चित्त आता है।
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