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षोडश उद्देशक - आचार्य, उपाध्याय के प्रति अविनयाचरण का प्रायश्चित्त
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जो 'सद्धि पद का प्रयोग हुआ है, उसका संस्कृत रूप सार्द्ध है। 'अर्दैन सहित सार्द्धम्' - इस विग्रह के अनुसार 'साद पद का अभिधेयार्थ एक साथ में खाना है। भिक्षु का गृहस्थ के साथ खाना कल्पनीय नहीं है। अत: लक्षण द्वारा इसका अर्थ गृहस्थों के साथ या उनके बीच बैठकर खाने से हैं।
ऐसा करने में अनेक दोष आशंकित हैं। भिक्षु के प्रति विशेष श्रद्धाशील व्यक्ति, भिक्षु द्वारा न चाहे जाने पर भी (निमंत्रणपूर्वक) पात्र में आहार डाल सकता है। यदि आस-पास के लोग विद्वेषी हो तो वे भिक्षु को खाते देख कर अवहेलना या अनेक प्रकार के विपरीत उपक्रम भी कर सकते हैं। ____अत एव भिक्षु के लिए एकान्त, छत युक्त स्थानों में आहार लेने का विधान किया गया है। यदि ऐसा न हो तो चारों ओर पर्दे लगा कर आहार करे। एकान्तभोजिता का इतना महत्त्व है, यदि भिक्षु एकान्तर तप में हो, एकाशन में हो तथा वहाँ गृहस्थ आ जाए तो बीच में उठना भी तपोभंग का हेतु नहीं बनता।
यदि भिक्षु अकेला ही आहार करने वाला हो तो गृहस्थ की तरफ पीठ करके विवेक पूर्वक आहार कर सकता है। तात्पर्य यह है कि गृहस्थ न देखे, ऐसे स्थानों में बैठ कर ही भिक्षुओं को आहार आदि का उपयोग करना चाहिए।
आचार्य, उपाध्याय के प्रति अविनयाचरण का प्रायश्चित्त जे भिक्खू आयरियउवज्झायाणं सेजासंथारगं पाएणं संघट्टेत्ता हत्थेणं अणणुण्णवेत्ता धा(रे)रयमाणे गच्छइ गच्छंतं वा साइज्जइ॥४०॥
कठिन शब्दार्थ - संघद्देत्ता - संघाटित - संस्पृष्ट होने पर, अणणुण्णवेत्ता - सविनय अनुज्ञापित किए बिना, धार( रे )यमाणे - (दुष्कृत को) धारण किए हुए (प्रायश्चित्त न करते हुए)।
भावार्थ - ४०. जो भिक्षु आचार्य-उपाध्याय के शय्या-संस्तारक के पैर संस्पृष्ट हो जाने पर (करबद्ध) हाथों से विनय किए बिना - अविनय को धारण किए हुए ही चला जाता है या जाते हुए का अनुमोदन करता है, उसे लघु चौमासी प्रायश्चित्त आता है।
विवेचन - ‘विणयमूलो धम्मो' के अनुसार जैन धर्म विनयप्रधान है। आचार्य, उपाध्याय, स्थविर, रत्नाधिक, गीतार्थ मुनिवृन्द इत्यादि के प्रति विनय, बहुमान, आदर एवं
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