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निशीथ सूत्र
करनी हो, उसे छुपा कर रखा जाए। तदनुसार जुगुप्सा का अर्थ छिपाना या छिपाव हो गया । काल तो अनवरत गतिशील, परिवर्तन शील है। जनमानस उससे अप्रभावित नहीं रहता। इसी क्रम में लोगों में ऐसी मानसिकता का उद्भव हुआ कि छिपाने योग्य तो वह होता है जो अच्छा न हो, श्रेष्ठ न हो। रक्षणीय को छिपाने की क्या आवश्यकता है ? तदनुसार जुगुप्सा का अर्थ घृणास्पदता में परिवर्तित हो गया । यहाँ प्रयुक्त जुगुप्सनीय शब्द उस भाषाकाल का द्योतक है जब उपर्युक्त परिवर्तनों में से गुजरता हुआ इसका अर्थ घृणा में निहित हो गया था । जैन धर्म तो जातिय उच्चता और नीचता में विश्वास नहीं करता । उत्तराध्ययन (२५ वाँ अध्ययन) में बड़े स्पष्ट शब्दों में कहा है -
कम्मुणा बम्हणो होइ, कम्मुणा होड़ खत्तिओ।
वइसो कम्मुणा होड़ सुद्धो हवड़ कम्मुणा ॥
ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य और शूद्र कर्म से ही होते हैं। कर्म ही मुख्य हैं, जाति तो गौण है।
यहाँ जुगुप्सनीय कुलों का उल्लेख जातीय उच्चता और नीचता के प्रयोजन से नहीं हुआ है। जिन कुलों में मांस, मदिरा आदि का आमतौर व्यवहार होता है। हिंसक प्रवृत्तियों में विशेषतः संकुल रहते हैं, वे जुगुप्सनीय कुल हैं। वहाँ भिक्षा, स्वाध्याय आदि का निषेध करने का तात्पर्य अशुद्ध वातावरण से बचाना है क्योंकि वातावरण का अपना प्रभाव होता है। साथ ही साथ व्यावहारिक दृष्टि से ऐसा भी है, वहाँ साधुओं को आते-जाते देख कर शौचाचार युक्त उत्तम कुलों में घृणा या दुराव का भाव उत्पन्न होता है।
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'यद्यपि सिद्ध लोकविरुद्ध नाचरणीय नाचरणीयम्'
स्थविर कल्पी साधु समाज रहते हैं। उन्हें निश्चय और व्यवहार, धर्म तथा लोक दोनों ही दृष्टियों से जागरूक रहना आवश्यक है।
आगमों में ब्राह्मण, क्षत्रिय और वैश्य कुलों को जो अजुगुप्सनीय कहा गया है, वह व्यावहारिक दृष्टिकोण है। वहाँ शुद्रादि का आशय अशौचाचार युक्त म्लेच्छादि अनार्य कुलों से है, जो स्पष्ट रूप में हिंसाजीवी होते हैं।
यहाँ यह भी ज्ञातव्य है, आगमों में स्पृश्य-अस्पृश्य आदि के संदर्भ में कोई भी निषेध सूचक वचन प्राप्त नहीं होता। जो व्यवहार में अछूत माने जाते हैं, उस संदर्भ में आगमों में ऐसा कोई निषेध सूचक वाक्य प्राप्त नहीं होता। जैन धर्म तो सभी जीवों को समान मानता है। किसी को भी जुगुप्सित, अस्पृश्य या घृणित नहीं मानता।
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