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षोडश उद्देशक - इतरगण संक्रमण विषयक प्रायश्चित्त
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भावार्थ - १४. जो भिक्षु विशिष्ट चारित्र रत्न युक्त साधु को उससे रहित या न्यून बतलाता है अथवा बतलाते हुए का अनुमोदन करता है। ___ १५. जो भिक्षु चारित्र रूप रत्न से रहित या न्यून साधु को विशिष्ट चारित्र रत्न युक्त बतलाता है अथवा बतलाते हुए का अनुमोदन करता है।
ऐसा करने वाले भिक्षु को लघु चौमासी प्रायश्चित्त आता है।
विवेचन - जैन धर्म में सम्यग् दर्शन, सम्यग् ज्ञान और सम्यक् चारित्र को रत्नत्रय कहा गया है। आध्यात्मिक दृष्टि से इनकी असीम मूल्यवत्ता को व्यवहारतः रत्नों से उपमित किया गया है। इनके संबंध में अपलाप करना, विपरीत भाषण करना दोषयुक्त है, प्रायश्चित्त योग्य है।
जिसमें चारित्र गुण का वैशिष्ट्य हो उसे वैसा ही मानना चाहिए, उसे आदर देना चाहिए, उसे कभी हल्का नहीं मानना चाहिए और न वैसा कथन ही करना चाहिए।
जिसमें चारित्र गुण सम्यक् विद्यमान न हो या न्यूनता युक्त हो, उसे विशिष्ट चारित्र गुण संपन्नता की गरिमा नहीं देनी चाहिए, उसे वैसा नहीं कहना चाहिए।
ये दोनों ही प्रकार के कथन या भाषण तथ्य के विपरीत हैं, अत एव अकथनीय हैं।
प्रस्तुत सूत्र में संयम गुणों की अपेक्षा से यह कथन है, अन्य ज्ञानादि सभी गुणों से विषयों में अयथार्थ कथन का प्रायश्चित्त इन सूत्रों से ही समझ लेना चाहिए।
. इतरगण संक्रमण विषयक प्रायश्चित्त जे भिक्खू वसुराइयगणाओ अवसुराइयं गणं संकमइ संकमंतं वा साइज्जइ॥१६॥
कठिन शब्दार्थ-- संकमइ - संक्रमण (परिवर्तन) करता है।
भावार्थ - १६. जो भिक्षु विशिष्ट चारित्ररत्नरूपगुणयुक्त गण से अल्पचारित्ररत्नरूपगुण युक्त गण में संक्रमण करता है या संक्रमण करते हुए का अनुमोदन करता है, उसे लघु चौमासी प्रायश्चित्त आता है।
विवेचन - सम्यग् ज्ञान-दर्शन-चारित्र रूप अप्रतिम आध्यात्मिक वैभव का संवाहक भिक्षु उनकी गरिमा, आभा को सदैव अक्षुण्ण रखता हुआ संयम की आराधना में अभिरत रहे, यह वांछित है। योग्य, त्यागतपोमय जीवन के धनी गणनायक के नेतृत्व में जिस गण में भिक्षु चारित्र का बड़ी ही समीचीनता, कुशलता, सन्निष्ठा के साथ पालन करते हैं, वह उत्तम, विशिष्ट चारित्र रत्नगुणसंपन्न गण होता है। जो उत्कृष्ट चारित्र के परिपालन में कुछ कष्ट .
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