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षोडश उद्देशक - आरण्यक आदि से आहार ग्रहण विषयक प्रायश्चित्त
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"साधु साध्वी के रोग आदि विशेष कारणों से इक्षु स्स, इक्षु के टुकड़े आदि सेवन करने का प्रसंग आने पर इक्षु वन में जाने का विधान किया गया है। यहां पर इक्षुवन का तात्पर्य यह है कि - जहां पर इक्षु का रस, मुरब्बे आदि इक्षु सम्बन्धी अनेक वस्तुओं का निर्माण होता हो। उस कारखाने जैसे स्थान से इक्षु सम्बन्धी अनेक वस्तुएं अचित्त एवं निर्दोष सुलभ हो, वहाँ से 'साधु विधि से आवश्यकता होने पर वे वस्तुएं ग्राह्य है। इक्षु के मुरब्बे में फैंकने का अंश प्रायः नहीं रहता है।
उपर्युक्त सूत्रों (४ से ११ तक) में सचित्त इक्षु एवं उनके सचित्त विभागों को ग्रहण करने का प्रायश्चित्त बताया गया है।"
आरण्यक आदि से आहार ग्रहण विषयक प्रायश्चित्त जे भिक्खू आरणगाणं वण्णधाणं अडवीजत्तासंपट्ठियाणं असणं वा पाणं वा खाइमं वा साइमं वा पडिग्गाहेइ पडिग्गाहेंतं वा साइजइ॥१२॥ ... जे भिक्खू आरणगाणं वण्णंधाणं अडवीजत्ताओ पडिणियत्ताणं असणं वा पाणं वा खाइमं वा साइमं वा पडिग्गाहेइ पडिग्गाहेंतं वा साइज्जइ॥१३॥ 'कठिन शब्दार्थ - आरणगाणं - आरण्यक - वनवासियों का, वण्णधाणं - वन में गए हुओं का, अडवीजत्तासंपट्ठियाणं - अटवी-यात्रा-संप्रस्थित - वन की यात्रा पर प्रस्थान किए हुओं का, अडवीजत्ताओ - वन की यात्रा से, पडिणियत्ताणं - प्रतिनिवृत्त - वापस लौटते हुओं का। .
भावार्थ - १२. जो भिक्षु आरण्यकों, वन में गए हुओं तथा वन की यात्रा पर प्रस्थान किए हुओं से अशन-पान-खाद्य-स्वाद्य रूप आहार प्रतिगृहीत करता है - लेता है या लेते हुए का अनुमोदन करता है।
१३. जो भिक्षु आरण्यकों, वन में गए हुओं एवं वन की यात्रा से वापस लौटते हुओं का अशन-पान-खाद्य-स्वाध रूप आहार प्रतिगृहीत करता है - लेता है या लेते हुए का अनुमोदन करता है।
ऐसा करने वाले भिक्षु को लघु चौमासी प्रायश्चित्त आता है। विवेचन - "अटव्यरण्यं विपिन गहन कानन वनम्।" - अमरकोश के
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