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प्रथम उद्देशक - गृहस्थादि द्वारा पथादि निर्माण-विषयक प्रायश्चित्त
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सचित्त पदार्थगत गंध सूंघने का प्रायश्चित्त जे भिक्खू सचित्तपइट्ठियं गंधं जिग्घइ जिग्तं वा साइज्जइ॥१०॥ . भावार्थ - १०. जो साधु सचित्त प्रतिष्ठित-सचित्त पदार्थवर्ती गंध को सूंघता है या सूंघते हुए का अनुमोदन करता है, उसे गुरुमासिक प्रायश्चित्त आता है।
विवेचन - साधु भौतिक आकर्षणों से सदा दूर रहे, इन्द्रियों के अनुकूल, सुखद विषयों में कभी आसक्त न हो, उसकी इन्द्रियाँ उस दिशा में प्रवृत्त न हो, संयम की विशुद्ध आराधना ! के लिए यह अत्यन्त आवश्यक है। : - इन सूत्रों में घ्राणेन्द्रिय के विषय गंध का जो उल्लेख हुआ है, वह सुगन्ध के अर्थ में है।
सुगन्ध और दुर्गन्ध के रूप में गंध के दो भेद हैं। सुगन्ध ही प्रिय होने के कारण व्यक्ति को आकृष्ट करती है।
आगम में तो यहाँ तक कहा गया है कि यदि स्वाभाविक रूप में भी सुगन्ध आ रही हो तो साधु उसमें आसक्त न हो, उसे सूंघने में जरा भी उसकी रुचि न हो, वह उसे सूंघने से सर्वथा दूर रहे |
जब सहज रूप में आती हुई सुगन्ध को सूंघना वर्जित है, तब इच्छापूर्वक सुगन्ध को सूंघने के लिए तो स्थान ही कहाँ है, वह तो सर्वथा निषिद्ध है।
- गृहस्थादि द्वारा पथादि निर्माण-विषयक प्रायश्चित्त
जे भिक्खू पयमग्गं वा संकम वा अवलंबणं वा अण्णउत्थिएण वा गारथिएण वा कारेइ कारेंतं वा साइजइ॥११॥
जे भिक्खू दगवीणियं अण्णउत्थिएहिं वा गारथिएहिं वा कारेइ कारेंतं वा साइज्जइ॥ १२॥
जे भिक्ख सिक्कगं वा सिक्कगणंतगं वा अण्णउत्थिएण वा गारथिएण वा कारेइ कारेंतं वा साइज्जइ॥१३॥ - जे भिक्खू सोत्तियं या रज्जुयं वा चिलिमिलिं वा अण्णउत्थिएण वा. गारथिएण वा कारेइ कारेंतं वा साइज्जइ॥ १४॥
• आचारांग सूत्र, द्वितीय श्रुतस्कन्ध, अध्ययन-१, उद्देशक-८
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