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निशीथ सूत्र
. भावार्थ - ४३. जो भिक्षु पात्र से सचित्त पृथ्वीकाय लवण, गैरिक आदि निकालता है, (गृहस्थ आदि से) निकलवाता है या सामने निकाल कर देते हुए से गृहीत करता है। स्वीकार करता है अथवा गृहीत करने वाले का अनुमोदन करता है ।
४४. जो भिक्षु पात्र से सचित्त अप्काय निकालता है, (गृहस्थ आदि से) निकलवाता है या सामने निकाल कर देते हुए से गृहीत करता है अथवा गृहीत करते हुए का अनुमोदन करता है।
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४५. जो भिक्षु पात्र से सचित्त अग्निकाय निकालता है, (गृहस्थ आदि से) निकलवाता है या सामने निकाल कर देते हुए से गृहीत करता है अथवा गृहीत करने वाले का अनुमोदन करता है।
४६. जो भिक्षु पात्र से सचित्त कंद, मूल, पत्ते, फूल, फल, बीज या हरितकाय आदि निकालता है, (गृहस्थ आदि से) निकलवाता है या सामने निकाल कर देते हुए से गृहीत करता है अथवा गृहीत करने वाले का अनुमोदन करता है ।
४७. जो भिक्षु पात्र से सचित्त शालि आदि धान्य निकालता है, (गृहस्थ आदि से ) निकलवाता है या सामने निकाल कर देते हुए से गृहीत करता है अथवा गृहीत करने वाले का अनुमोदन करता है।
४८. जो भिक्षु पात्र से (सचित्त) त्रस प्राणियों को निकालता है (गृहस्थ आदि से ) निकलवाता है या सामने निकाल कर देते हुए से गृहीत करता है अथवा गृहीत करने वाले का अनुमोदन करता है।
इस प्रकार उपर्युक्त अविहित कार्य करने वाले भिक्षु को लघु चातुर्मासिक प्रायश्चित्त आता है।
विवेचन - भिक्षु द्वारा प्रयोग में ली जाने वाली सामग्री में पात्र का अपना विशेष स्थान है, क्योंकि भिक्षु अपने ही पात्रों में भिक्षा ग्रहण करता है, उन्हीं में आहार करता है, उनको धो- पौंछकर विधिवत् रखता है। किसी भी प्रकार की जीव विराधना न हो, यह ध्यान रखता है । वह गृहस्थ के पात्रों का प्रयोग नहीं करता । जैसा पहले कहा गया है, भिक्षु धातु पात्रों का भी प्रयोग नहीं करता, केवल काष्ठ, तुम्बिका और मृत्तिका के पात्र ही लेता है, उनका उपयोग करता है।
गृहस्थ से पात्र लेने के संदर्भ में जरा भी जीव विराधना, हिंसा न हो, इस दृष्टि से इन सूत्रों में उन विधाओं की चर्चा की गई है, जो प्रायश्चित्त योग्य हैं।
जिस पात्र में सचित्तकाय हो - स्थावर त्रसादि जीव हो, वैसा पात्र साधु के लिए ग्राह्य
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