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निशीथ सूत्र
से उसे धारण न करना, उसे न रखना भी प्रायश्चित्त योग्य है, क्योंकि जब तक कोई भी उपधि, वस्तु उपयोग में लेने योग्य हो, उसका उपयोग किया जाना चाहिए।
पात्र-वर्ण-परिवर्तन विषयक प्रायश्चित्त जे भिक्खू वण्णमंतं पडिग्गहं विवण्णं करेइ करेंतं वा साइजइ॥ १०॥ जे भिक्खू विवण्णं पडिग्गहं वण्णमंतं करेइ करेंतं वा साइज्जइ॥११॥
कठिन शब्दार्थ - वण्णमंतं - वर्णमान - उत्तम वर्ण युक्त, विवण्णं - विवर्ण - कुत्सित वर्ण युक्त। ___ भावार्थ - १०. जो भिक्षु उत्तम - श्रेष्ठ वर्ण युक्त पात्र को कुत्सित वर्ण युक्त बनाता है या बनाते हुए का अनुमोदन करता है।
११. जो भिक्षु कुत्सित वर्ण युक्त पात्र को उत्तम वर्णयुक्त बनाता है अथवा बनाने वाले का अनुमोदन करता है।
विवेचन - प्रयुज्यमान पात्रादि के प्रति भिक्षु की मानसिकता सदैव सुस्थिर बनी रहे, यह आवश्यक है। पात्रादि तो उसके संयम के साहाय्यभूत शरीर की आवश्यकताओं की पूर्ति के लिए हैं। वे उपयोग में आने योग्य हों, उनसे भिक्षु का अपेक्षित कार्य चलता रहे, पात्र के संबंध में इतना ही चिंतन यथेष्ट है। उनकी शोभनता, अशोभनता, सुन्दरता, असुन्दरता इत्यादि को लेकर भिक्षु के मन में किसी भी प्रकार के संकल्प-विकल्प उत्पन्न न हों, यह वांछनीय है।
कभी मन में भौतिक पदार्थों के विषय में आसक्ति उत्पन्न न हो जाए, इस दृष्टि से पात्र के वर्ण परिवर्तन विषयक ये दोनों सूत्र बड़े ही प्रेरणास्पद हैं। .
यदि भिक्षु को सहज रूप में कोई ऐसा पात्र प्राप्त हो जाए, जो रंग आदि में सुन्दर दिखाई पड़ता हो तो भिक्षु मन में ऐसा संकल्प-विकल्प करते हुए कि मुझसे आचार्य, उपाध्याय आदि स्वयं न ले लें, कोई सांभोगिक साधु मांग न ले या कोई व्यक्ति उसकी सुन्दरता से आकृष्ट होकर उसे चुरा न ले, उसे विवर्ण या विद्रूप बनाता है, उस पर काला, नीला आदि रंग पोतता है, जिससे उसकी आकर्षकता मिट जाए तो भिक्षु प्रायश्चित्त का भागी होता है।
यदि भिक्षु को कोई ऐसा पात्र प्राप्त हो जाय, जो उसके अपेक्षित कार्यों के लिए उपयोगी तो हो, किन्तु वर्ण आदि की दृष्टि से देखने में असुन्दर या भद्दा लगता हो तो वह
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