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निशीथ सूत्र
यहाँ यह ज्ञातव्य है कि आगमों में वय स्थविर, ज्ञान स्थविर तथा दीक्षा (संयम)स्थविर के रूप में स्थविर तीन प्रकार के कहे गए हैं।
जिनकी आयु ६० वर्ष से कम होती है किन्तु जो ज्ञान में, आगमों, शास्त्रों के अध्ययन में बढे-चढे हों, वे 'ज्ञान स्थविर' कहे जाते हैं। अवस्था कम होते हुए भी जिनका दीक्षापर्याय दीर्घ या लम्बा होता है, वे 'दीक्षा स्थविर' कहे जाते हैं। यहाँ प्रयुक्त स्थविर शब्द वयस्थविर के लिए हैं। - यह सर्व विदित है कि जैन साधु या साध्वी का जीवन स्वावलम्बन पर आधारित होता है। इसलिए दीक्षा देते समय आचार्य, उपाध्याय आदि यह ध्यान रखते हैं कि दीक्षार्थी विकलांग न हो, दैहिक दृष्टि से अशक्त न हो, अपने स्वयं के कार्य करने में असमर्थ न हो, रुग्ण न हो। किन्तु दीक्षा ग्रहण करने के पश्चात् कोई विकलांग, अशक्त या रोगांतक युक्त हो जाए तो सहवर्ती साधु उसके कार्यों में सहयोग करते हैं, जो आवश्यक है। इसी संदर्भ में इन सूत्रों में यह कहा गया है कि बाल, वृद्ध, विकलांग, अशक्त साधु-साध्वी को अतिरिक्त पात्र
देने के रूप में जो सहयोग नहीं किया जाता, वह दोष पूर्ण है, प्रायश्चित्त योग्य है। .:. . ऐसे साधु-साध्वियों को जिनमें ये कमियाँ न हों, उन्हें अतिरिक्त पात्र दिया जाना दोषयुक्त है, प्रायश्चित्त योग्य है।
यहाँ यह विशेष रूप से जानने योग्य है कि उपर्युक्त दोनों सूत्रों की दो प्रकार से व्याख्या की जाती है - ___ बाल साधु-साध्वी या वृद्ध साधु-साध्वी, जो विकलांग हो या अशक्त हो उन्हें अतिरिक्त पात्र दिया जा सकता है, किन्तु अविकलांग, सशक्त बाल-वृद्ध साधु-साध्वी तथा तरुण साधुसाध्वी को अतिरिक्त पात्र नहीं दिया जा सकता। व्याख्या का यह पहला प्रकार है।
व्याख्या का दूसरा प्रकार यह है - शब्द प्रयोग परंपरा के अनुसार आदि और अन्त के कथन से मध्य का अध्याहार हो जाता है। अतः बाल, वृद्ध या तरुण कोई भी साधु-साध्वी विकलांग या शारीरिक दृष्टि से अशक्त हो तो उसे अतिरिक्त पात्र दिया जा सकता है।
जैन दर्शन अनेकान्तवाद पर आधारित है। वहाँ किसी भी बात पर एकान्त रूप में आग्रह नहीं रखा जाता, विभिन्न अपेक्षाओं को, पक्षों को ध्यान में रखते हुए वस्तु तत्त्व का निरूपण होता है।
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