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त्रयोदश उद्देशक - धातृपिंडादि सेवन करने का प्रायश्चित्त
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विवेचन - जैसा पहले यथा स्थान विवेचन हुआ है, जीवनीय कार्यों में आहार या भोजन का बहुत महत्त्व है। भिक्षु के वस्त्र पात्र आदि तो एक बार लिए हुए लम्बे समय तक चलते हैं, किन्तु तपश्चरण के अतिरिक्त भोजन तो सामान्यतः प्रतिदिन किया जाता है। भोजन संयम पालन हेतु देह की निर्वाहकता, साधुचर्योपयोगी कार्य करने में सक्षमता आदि के लिए आवश्यक है। अतः जैन आगमों में भोजन या आहार चर्चा के संबंध में अनेक मर्यादाओं और नियमों का विधान है, जिससे आहारचर्या में आशंकित दोष न लगे।
भिक्षु अपने स्वाभाविक, संयमानुप्राणित जीवन में संस्थित रहते हुए सहज रूप में जो शुद्ध भिक्षा प्राप्त होती है, उसे लेता है। जिला लोलुपतावश वह उत्तम, सरस, स्वादिष्ट भोजन प्राप्त करने हेतु किसी भी प्रकार के सावध उपक्रम का सहारा नहीं लेता। मंत्र, विद्या, चिकित्सा, भस्मप्रेक्षण - भुरकी आदि मंत्र-तंत्रादि सम्मत प्रयोग कदापि नहीं करता, न वह निमित्त ज्ञान या ज्योतिष आदि द्वारा भूत, भविष्य, वर्तमान विषयक शुभाशुभ फल ही बताता है, वह अभीप्सित भोजन प्राप्त करने हेतु माया, प्रवंचना, छल, कपट युक्त अलीक वचन आदि का कभी प्रयोग नहीं करता। क्योंकि ये सावध कार्य हैं, जिनका भिक्षु को जीवनभर के लिए प्रत्याख्यान होता है।
जो भिक्षु आहार के लेने में इनमें से किसी भी दूषित उपक्रम का सहारा लेता है, वह । प्रायश्चित्त का भागी होता है। . भिक्षु द्वारा अनेक दूषित प्रवृत्ति पूर्वक आहार लिया जाना उत्पादन दोष कहा गया है। पिंडनियुक्ति में वैसे सोलह दोषों की चर्चा है। इन सूत्रों में वर्णित पन्द्रह दोषों में से अन्तर्धान को छोड़कर बाकी के चवदह दोष पिण्डनियुक्ति में वर्णित दोषों के अनुरूप हैं। ___निशीथ चूर्णि में तथा पिण्ड नियुक्ति में धाई पिण्ड आदि दोषों उदाहरण सहित विस्तृत वर्णन किया गया है।
॥ इति निशीथ सूत्र का प्रयोदश उद्देशक समाप्त॥
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