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द्वादश उद्देशक - मर्यादित क्षेत्र से बाहर आहार ले जाने का प्रायश्चित्त
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देश, काल, क्षेत्रादि के कारण, रुग्णता आदि के कारण यदि तीसरे प्रहर से पहले भी भिक्षा लानी पड़े तो आपवादिक रूप में लाई जा सकती है। किन्तु आनीत भिक्षा को तीन प्रहर से अधिक समय तक रखना वर्जित है, दोषयुक्त है।
निशीथ भाष्य एवं चूर्णि में कालातिक्रमण के कारण होने वाली दोषपूर्ण स्थितियों की ओर संकेत करते हुए कहा गया है - . .१. लम्बे समय तक आहार रखने से चींटियाँ आदि उसमें प्रवेश कर सकती हैं, जिससे उन्हें पुनः निकालने में उनकी विराधना होती है।
२. कुत्ते आदि से भी आहार को बचाए रखना आवश्यक होता है। अर्थात् भिक्षु का उस और विशेष ध्यान रहता है जो संयमाराधना में विघ्न स्वरूप है।
मर्यादित क्षेत्र से बाहर आहार ले जाने का प्रायश्चित्त - जे भिक्खू परं अद्भजोयणमेराओ परेणं असणं वा पाणं वा खाइमं वा साइमं वा उवाइणावेइ उवाइणावेंतं वा साइजइ॥३२॥ 'कठिन शब्दार्थ- अद्धजोयणमेराओ - दो कोस की मर्यादा से आगे। -
भावार्थ - ३२. जो भिक्षु दो कोस (अर्द्धयोजन) की मर्यादा से आगे अशन-पानखाद्य-स्वाध रूप आहार को ले जाता है, इस प्रकार क्षेत्र मर्यादा का उल्लंघन करता है या उल्लंघन करते हुए का अनुमोदन करता है, उसे लघु चातुर्मासिक प्रायश्चित्त आता है। - विवेचन - परिग्रह, आसक्ति, अभिकांक्षा, लिप्सा - ये भिक्षु के लिए सर्वथा त्याज्य हैं। उसका प्रत्येक कार्य इनसे विरहित होना चाहिए। शास्त्र-मर्यादा के अनुरूप उसे अपनी आवश्यकताओं की पूर्ति करनी चाहिए। इसी मर्यादा-बद्धता में आहार विषयक क्षेत्र मर्यादा का समावेश है। आहार के संदर्भ में आगे मिलने न मिलने की चिन्ता न रखते हुए भिक्षु को कभी उसे संग्रहित कर मर्यादोपरान्त रखना निषिद्ध है।
___ अतः यहाँ दो कोस से अधिक आहार न ले जाने का कहा गया है। वैसा करने में संग्रहवृत्ति के साथ-साथ और भी कठिनाइयाँ उत्पन्न होती हैं। वह वस्त्र, पात्र आदि का स्वयं वहन करता है। अतः उसकी सारी सामग्री न्यूनातिन्यून होती है ताकि उसे वहन करना दुःखद न हो जाए। आहार को साथ लिए चलने में पानी भी लेना होगा, जिससे विहार यात्रा कष्टपूर्ण होगी। व्यावहारिक दृष्टि से भी यह समीचीन प्रतीत नहीं होगा। इससे आहार-लिप्सा का भाव झलकता है। भिक्षु की तितिक्षामयी छवि धूमिल होती है। उसका तो अन्तर्बाह्य इतना
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