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द्वादश उद्देशक - भौतिक आकर्षण-आसक्ति-विषयक प्रायश्चित्त
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विण्णाएसु - विज्ञात - वर्तमान काल में ज्ञात, सज्जइ - आसक्त होता है, रज्जइ - अनुरंजित होता है, गिज्झइ - लोलुप होता है, अज्झोववज्जइ - अध्युपपन्न - अत्यन्त आसक्त होता है।
भावार्थ - २९. अनेक प्रकार के महोत्सवों में जिनमें स्त्री, पुरुष, वृद्ध, अधेड़, बच्चे सामान्य वस्त्राभूषणों या विशेष अलंकार सज्जित होकर गाते हुए, बजाते हुए, नाचते हुए, हँसते हुए, क्रीड़ा करते हुए, मोहित करते हुए या विपुल अशन-पान-खाद्य-स्वाद्य रूप चतुर्विध आहार परस्पर बाँट कर खाते. हुए हों, वहाँ जो भिक्षु इन्हें आँखों से देखने की इच्छा से मन में भावना करता है अथवा वैसा करते हुए का अनुमोदन करता है।
३०. जो भिक्षु ऐहिक, पारलौकिक, दृष्ट या अदृष्ट, सुने-अनसुने, ज्ञात-अज्ञात रूपों को देखने की इच्छा करता है, उनमें लोलुप बनता है या अत्यन्त आसक्त होता है अथवा इन्हें देखने की इच्छा करने वाले, लोलुप होने वाले या अत्यंत आसक्त होने वाले का अनुमोदन करता है।
इस प्रकार इन दोष-स्थानों में से किसी भी दोष-स्थान का सेवन करने वाले भिक्षु को लघु चातुर्मासिक प्रायश्चित्त आता है।
- विवेचन - भिक्षु की मानसिकता सदैव अध्यात्म की दिशा में संलग्न रहे, यह वांछनीय है। "मन एव मनुष्याणां कारणं बंधमोक्षयो" - के अनुसार विषयाभिकांक्षा पहले मन में जागती है, फिर वह वाणी और काय को प्रभावित करती है। इसीलिए "मनसा चिन्तयति, वचसा वदति, कायेन करोति" - यह सर्वप्रचलित है। इन्द्रियाँ मनोवृत्ति के अनुसार अपनेअपने विषयों में संसक्त होती हैं। उनमें चक्षुरिन्द्रिय का सबसे अधिक महत्त्व इसलिए है कि अन्य इन्द्रियों के ग्राह्यं विषय उनका संस्पर्श करते हैं तब वे उनमें अभिरत, संलग्न होती हैं, किन्तु चक्षुरिन्द्रिय जो कि दर्शनप्रवण है, स्वयं पदार्थों को, विषयों को गृहीत करती है और उनकी मोहकता में आसक्त हो जाती है। उसके आकृष्ट होने पर अन्य इन्द्रियाँ भी तद्तद् विषयों के सेवन में अग्रसर होती हैं। __ यही कारण है कि उपर्युक्त सूत्रों में सभी भौतिक विषयों के रूपदर्शन से आकृष्ट होने का, उस ओर मन लगाने का निषेध किया गया है, प्रायश्चित्त योग्य बतलाया गया है।
इन सूत्रों में वर्णित विविध विषयों से ऐसा प्रतीत होता है कि पुराकाल में भारतवर्ष जहाँ आध्यात्मिक तथा साधनामूलक दृष्टि से शिखर पर था वैसे ही सुख, समृद्धि, जीवन के विभिन्न लौकिक पक्षों में विकास इत्यादि की दृष्टि से वह चरमोत्कर्ष पर था। स्थापत्य,
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