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निशीथ सूत्र
विवेचन - भिक्षु की आहारचर्या नितांत शुद्ध एवं सावद्य वर्जित हो, यह आवश्यक है। अत एव सचित्त पदार्थ का संश्लेष, संस्पर्श आदि किसी भी रूप में होना वर्जित है । तत्संश्लिष्ट आहार अग्राह्य है।
किन्ही - किन्हीं परिवारों में हाथ, पात्र, दव (चम्मच) आदि धोकर साफ कर भिक्षा देने की परंपरा होती है। सामान्यतः सावद्य जल द्वारा ऐसा किया जाता है । यो सचित्त जल आदि से सशक्त या लिप्त आर्द्र, हाथ, कुड़छी, पात्र आदि द्वारा जो आहार दिया जाता है, वह पूर्वकृत कर्म दोषयुक्त कहलाता है । अर्थात् यह आहार देने से पूर्व किया गया दोष है तथा यह सचित्त-आर्द्रता या दोष आहार दिए जाने तक संसक्त रहता है । इसीलिए यह ' एषणा' के 'दायक' दोष में समाविष्ट हैं।
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यहाँ यह ध्यान देने योग्य है कि यदि हाथ आदि का प्रक्षालन अचित्त जल से हो तो यह दोष नहीं लगता। किन्तु उसमें भी यतना आदि की पूर्ण सावधानी रखनी चाहिये । अन्यथा उससे भी जीव विराधना हो सकती है।
सचित पात्र आदि से आहार - ग्रहण - प्रायश्चित्त
जे भिक्खू गिहत्थाण वा अण्ण ( उ ) तित्थियाण वा सीओदगपरिभोगेण हत्थेण वा मत्तेण वा दव्वीएण वा भायणेण वा असणं वा पाणं वा खाइमं वा साइमं वा पडिग्गाहेइ पडिग्गार्हतं वा साइज्जइ ॥ १५ ॥
कठिन शब्दार्थ - सीओदगपरिभोगेण सचित्त जल से आई । भावार्थ - १५. जो भिक्षु सचित्त जल से
भीगे हुए हाथ, (मिट्टी के) पात्र, कुड़छी, धातु पात्र आदि से अशन, पान, खाद्य, स्वाद्य रूप चतुर्विध आहार ग्रहण करता है या ग्रहण करने वाले का अनुमोदन करता है, उसे लघु चौमासी प्रायश्चित्त आता है।
विवेचन - इससे पूर्वतन सूत्र में सचित्त जल से हस्तादि प्रक्षालित कर दिया जाता आहार लेना प्रायश्चित्त योग्य बतलाया गया है। प्रस्तुत सूत्र में इतना सा अन्तर है, यदि किसी के हाथ पानी से भीगे हों या पात्र आदि सचित्त जल से आर्द्र हों, तत्काल जल लिए जाने से गीले हों तो उनसे आहार ग्रहण करना दोषयुक्त है। "
यहाँ यह ज्ञातव्य है कि किसी कार्य में संलग्नतावश सचित्त जल से आर्द्र हाथ, पात्र आदि से आहार देने के पश्चात् देने वाला यदि पुनः उसी काम में लग जाए तो अप्काय आदि जीवों की विराधना होती है। अतः यहां पश्चात् कर्म दोष भी आशंकित
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