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द्वादश उद्देशक - त्रस-प्राणी-बंधन-विमोचन विषयक प्रायश्चित्त
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नहीं करना चाहिये, किन्तु उस शय्यातर से कह देना चाहिये कि - हम तुम्हारे घर में रहे हुए स्तम्भ की तरह इस प्रकार का (बछड़ों को खोलने, बांधने. का) कोई भी कार्य नहीं करेंगे। क्योंकि इस प्रकार खोलने से बछड़ा आदि दूध पी जाय तो गृहस्थ का उपालंभ और जंगल आदि में दौड़ कर चला जाय और उसे व्याघ्रादि हिंसक पशु खा जाय तो जीव विराधना होती है तथा.. बांधने पर बछड़े को अन्तराय तथा सादि आकर उसे काट जाय तो जीव विराधना होती है। अतः अनुकम्पा वाले मुनि बछड़े आदि को बांधना, खोलना नहीं करते हैं। यदि कोई करे तो.. उपर्युक्त दोषों का कारण होने से उसे चातुर्मासिक प्रायश्चित्त आता है। ___ यदि उसके गले में बंधन का फासा आ गया हो जिससे वह तड़फ रहा हो अथवा अग्नि आदि लग गई हो (तथा गड्डे, कुएं आदि में गिरने के भय से) इत्यादि कारणों से उसके बंधन खोल दिये हों इसका प्रायश्चित्त नहीं समझना चाहिये (इत्यादि विस्तृत विवेचन इसके भाष्य में आया है।) .. इससे संबंधित विशेष विवेचन - संघ से प्रकाशित 'समर्थ समाधान भाग २ के पृष्ठ १५० से १५४ तक वर्णित है।' जिज्ञासुओं को वह स्थल द्रष्टव्य है।
उपर्युक्त सूत्रों में त्रस प्राणियों के बंधन-विमोचन विषय के संदर्भ में जो चर्चा आई है, वे लौकिक कार्य हैं, जिन्हें लोग अपनी सुविधा, अनुकूलता एवं भावना के अनुरूप करते रहते हैं। यदि भिक्षु ऐसे कार्यों में संलग्न होने लगे, रुचि लेने लगे तो उसका संवर-निर्जरामय साधना पक्ष क्रमशः गौण और उपेक्षित होने लगता है। उसे तो आत्मभाव में - अपने स्वरूप में इतना स्थिर रहना चाहिए कि बाह्य कारुण्य-निष्कारुण्य का उसे भान ही न रहे। निःस्पृह साधनारत साधक में ऐसा होता ही है। अत एव उसकी भूमिका, कार्यविधा तथा समाचारी गृहस्थों से भिन्न कही गई है। गृहस्थों के लिए जो करणीय है, वह सब साधु के लिए करणीय नहीं होता। यहाँ महाकवि कालिदास की -
अल्पस्य हेतोर्बहुहातुमिच्छन्, विचारमूढः प्रतिभासि में त्वम्।
(दिखने वाले थोड़े से लाभ के लिए बहुत कुछ गँवा देना कोई बुद्धिमत्ता नहीं है।) यह उक्ति चरितार्थ होती है।
उत्तराध्ययन सूत्र में नमिराजर्षि द्वारा उद्घोषित निम्नांकित उक्ति द्रष्टव्य है - मिहिलाए डज्झमाणीए ण मे डज्झइ किंचण। (मिथिलायां डह्यमानायां ण मे दहति किंचन) अर्थात् मिथिला जल रही है, मेरा क्या जल रहा है?
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