________________
२५०
निशीथ सूत्र ..............................................................
निशीथ भाष्य में अयोग्यता का संबंध विशेषतः भिक्षाचर्या के साथ प्रतिपादित किया है। तदनुसार - जिसने पिंडैषणा का अध्ययन न किया हो, जिसकी वैयावृत्य में रुचि न हो, श्रद्धा न हो, जिसने उसका परमार्थ - महत्त्वपूर्ण आशय, अभिप्राय स्वायत्त न किया हो एवं जो दोषों का परिहार करने में अक्षम हो, वैयावृत्य की दृष्टि से वह अयोग्य है।
. साधु-साध्वियों के एकत्र संवास विषयक प्रायश्चित्त जे भिक्खू सचेले सबेलगाणं मजे संवसइ संवसंतं वा साइज्जइ॥९०॥ जे भिक्खू सचेले अचेलगाणं मझे संवसइ संवसंतं वा साइजइ॥ ९१॥ जे भिक्खू अचेले सचेलगाणं माझे संवसइ संवसंतं वा साइजइ॥ ९२॥ . जे भिक्खू अचेले अचेलगाणं मझे संवसइ संवसंतं वा साइजइ॥ ९३॥
कठिन शब्दार्थ - सचेले - सवस्त्र - स्थविरकल्पी, सचेलगाणं माझे - स्थविरकल्पी साध्वियों के मध्य - साथ, संवसइ - वास करता है, अचेलगाणं मझे - अचेलक (वस्त्ररहित) साध्वियों के मध्य, अचेले - निर्वस्त्र साधुओं के।
भावार्थ - ९०. जो स्थविरकल्पी भिक्षु स्थविरकल्पी साध्वियों के साथ वास करता है या वास करते हुए का अनुमोदन करता है। ___९१. जो स्थविरकल्पी भिक्षु अचेलक साध्वियों के साथ वास करता है या वास करते हुए का अनुमोदन करता है।
९२. जो अचेलक भिक्षु स्थविरकल्पी साध्वियों के साथ वास करता है या वास करते हुए का अनुमोदन करता है। ___ ९३. जो अचेलक भिक्षु अचेलक साध्वियों के साथ वास करता है या वास करते हुए का अनुमोदन करता है।
इस प्रकार उपर्युक्त अविहित कार्य करने वाले भिक्षु को गुरु चातुर्मासिक प्रायश्चित्त आता है।
विवेचन - ब्रह्मचर्य की अखण्ड, अविचल आराधना की दृष्टि से जैन आगमों में साधुसाध्वियों के लिए एक साथ संवास करने का, एक ही स्थान पर ठहरने का, रहने का निषेध किया गया है।
यद्यपि साधु तथा साध्वी अपनी व्रताराधना में संकल्पनिष्ठता एवं दृढतायुक्त होते हैं, किन्तु उनके जीवन में कभी भी ऐसा प्रसंग न बन पड़े, जिससे उनकी ब्रह्मचर्याराधना में दोष का अवसर आ जाए। इस कारण से साधु साध्वी के अचेल होने पर (चोरादि के द्वारा
Jain Education International
For Personal & Private Use Only
www.jainelibrary.org