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.. निशीथ सूत्र
भोज्य पदार्थ तैयार होते हैं। उनका लाना, ले जाना देखकर सामान्यतः एक साधारण मनुष्य के मन में यह वांछा जागृत होती है, कितना अच्छा हो, मुझे भी ये प्राप्त हो सके। यह जिह्वा लोलुपता युक्त मानसिकता का व्यक्त रूप है।
भिक्षु भी है तो आखिर एक मानव ही। उसके मन में कभी भी जिह्वालोलुपता उत्पन्न न हो जाए, इस हेतु से इस सूत्र में प्रायश्चित्त विधान हुआ है।
जब मन आहारादि विषयक लुब्धता से ग्रस्त हो जाता है, तब व्यक्ति उसे पाने हेतु सत्पथ का परित्याग कर देता है, अपने द्वारा स्वीकृत सत्यानुगत सिद्धान्तों से मुँह मोड़ लेता है। भिक्षु द्वारा विशिष्ट स्वादिष्ट भोज्य पदार्थों को पाने की लिप्सा से शय्यातर से अन्यत्र रात्रि वास करने का जो कथन हुआ है, वह इसी आशय का सूचक है। क्योंकि जब स्वाद लोलुपता उभर आती है, तब ऐसा हो जाना आशंकित है।
अध्यात्म रस के अनुपम आस्वादन में संलीन भिक्षु कभी भी उक्त विध भोज्य लोलुपता अपने मन में न आने दे।
देवादि नैवेद्य सेवन विषयक प्रायश्चित्त जे भिक्खू णिवेयणपिंडं भुंजइ भुंजंतं वा साइज्जइ॥ ८४॥ कठिन शब्दार्थ-णिवेयणपिंडं- निवेदन पिण्ड - देव आदि का नैवेद्य - प्रसाद या चढावा।
भावार्थ - ८४. जो भिक्षु देव आदि के नैवेद्य - चढावे के रूप में निवेदित, समर्पित भोज्य पदार्थ का परिभोग - सेवन करता है अथवा सेवन करने वाले का अनुमोदन करता है, उसे गुरु चातुर्मासिक प्रायश्चित्त आता है।
विवेचन - वर्तमान की तरह प्राचीनकाल में भी लौकिक मान्यता एवं लाभ आदि की आशा से देव, यक्ष, व्यन्तर आदि की पूजा, उपासना तथा उन्हें भोज्य पदार्थ निवेदित, समर्पित करने की प्रथा रही है। उन्हें अर्पित हेतु जो पदार्थ तैयार किए जाते थे, आज भी किए जाते हैं, उन्हें नैवेद्य कहा जाता है। लोक भाषा में उन्हें देव प्रसाद या देवताओं का चढावा कहा जाता है।
प्रस्तुत सूत्र में नैवेद्य के लिए 'णिवेयणपिंड - निवेदनपिण्ड' का प्रयोग हुआ है। "निवेदनाय - देवादिभ्यः समर्पणाय कृतं पिण्डम् - निवेदपिण्डम्" यह चतुर्थी तत्पुरुष समास है। इसके अनुसार देवताओं को चढाने के लिए निर्मित भोज्य पदार्थ इस संज्ञा - नाम से अभिहित होते हैं।
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