________________
एकादश उद्देशक - आहारलिप्सा से अन्यत्र रात्रिप्रवास विषयक प्रायश्चित्त
२४५
इन सूत्रों का आशय यह है कि आगाढ स्थिति में आहार रात में रखा तो जा सकता है, किन्तु उसमें से कण मात्र भी सेवन करना दोषयुक्त है।
आहारलिप्सा से अन्यत्र रात्रिप्रवास विषयक प्रायश्चित्त जे भिक्खू मंसाइयं वा मच्छाइयं वा मंसखलं वा मच्छखलं वा आहेणं वा पहेणं वा संमेलं वा हिंगोलं वा अण्णयरं वा तहप्पगारं विरूवरूवं हीरमाणं पेहाए ताए आसाए ताए पिवासाए तं रयणिं अण्णत्थ उवाइणावेइ उवाइणावेंतं वा साइज्जइ॥८३॥
कठिन शब्दार्थ - मंसाइयं - मांसादिक - जहाँ प्रारम्भ में मांस परोसा जाता हो, बाद में ओदनादि - भात आदि पदार्थ, मच्छाइयं - मत्स्यादिक - जहाँ प्रारम्भ में मछली परोसी जाती हो, बाद में ओदनादि, मंसखलं - जहाँ मांस सुखाया जाता हो उसका ढेर, मच्छखलंजहाँ मछलियाँ सुखाई जाती हो उसका ढेर, आहेणं - वधू के घर से वर के घर जो भोजन ले जाया जाता हो, पहेणं - वर के घर से वधू के घर जो भोजन ले जाया जाता हो, संमेलं - वैवाहिक आदि प्रसंगों में निर्मित भोजन: हिंगोलं - मृतभक्त - मरे हुए व्यक्ति को उद्दिष्ट कर निर्मित भोज्य पदार्थ, विरूवरूवं - विरूपरूप - विविध प्रकार का भोजन, हीरमाणं - ह्रीयमाण - ले जाया जाता हुआ, पेहाए - प्रेक्षित कर - देखकर, ताए - उसे, आसाए - पाने की आशा - आकांक्षा से, पिवासाए - पिपासा – प्राप्त करने की लिप्सा - उत्कंठा से, अण्णत्थ - अन्यत्र - शय्यातर से अन्य स्थान (उपाश्रय आदि) में, उवाइणावेइव्यतीत करता है, बिताता है।
भावार्थ - ८३. जो भिक्षु मांसादिक, मत्स्यादिक, मांस पाकाशय, मत्स्य पाकाशय, आहेणक, प्रहेणक, वैवाहिक आदि भोज, मृतभोज या इसी प्रकार किसी अन्य प्रसंग से लाए ले जाते विविध प्रकार के भोज्य पदार्थ देखकर उन्हें - उनमें से प्राप्त करने की इच्छा से, पिपासा से - लिप्सा, तीव्रतम उत्कंठा से शय्यातर से अन्यत्र किसी दूसरे स्थान (उपाश्रय आदि) में रात्रि व्यतीत करता है अथवा रात्रि व्यतीत करते हुए का अनुमोदन करता है, उसे गुरु चौमासी प्रायश्चित्त आता है। - विवेचन - इस सूत्र में भोज्य पदार्थ विषयक जो उल्लेख हुआ है, वह वैसे प्रसंगों से संबंधित है, जो हिंसादि दोष, लौकिक, सावद्य प्रदर्शन, स्व-परितोषण, उत्कट परिभोगेच्छा आदि से संबद्ध है। वैसे अवसरों पर मनस्तुष्टि एवं लोकरंजन हेतु विविध प्रकार के स्वादिष्ट
Jain Education International
For Personal & Private Use Only
www.jainelibrary.org