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एकादश उद्देशक - अनागाढ स्थिति में रात्रि में आहार रखने आदि....
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कठिन शब्दार्थ - रत्तिं - रात्रि में।
भावार्थ - ७७. जो भिक्षु दिन में अशन-पान-खाद्य-स्वाद्य रूप आहार प्राप्त कर (उसको रात्रि में रखता हुआ) दूसरे दिन सेवन करता है या सेवन करते हुए का अनुमोदन
करता है। . ७८. जो भिक्षु दिन में अशन-पान-खाद्य-स्वाध रूप आहार प्राप्त कर उसका रात में सेवन करता है या सेवन करते हुए का अनुमोदन करता है।
७९. जो भिक्षु रात्रि में अशन-पान-खाद्य-स्वाद्य रूप आहार प्राप्त कर उसका दिन में सेवन करता है या सेवन करते हुए का अनुमोदन करता है।
८०. जो भिक्षु रात्रि में अशन-पान-खाद्य-स्वाद्य रूप आहार प्राप्त कर उसका रात्रि में सेवन करता है .या सेवन करते हुए का अनुमोदन करता है।
उपर्युक्त अविहित कार्य करने वाले भिक्षु को गुरु चातुर्मासिक प्रायश्चित्त आता है।
विवेचन - जैसा पहले वर्णित हुआ है, भिक्षु किसी भी स्थिति में रात में आहार-पानी का सेवन नहीं कर सकता, न वैसा करने वाले का अनुमोदन ही करता है। रात्रिभोजन त्याग का नियम महाव्रतों की तरह सर्वथा पालन करने योग्य है। वह किसी भी प्रकार से बाधित नहीं होना चाहिए। ..
भिक्षु के लिए यह नियम है कि वह दिन में ही भिक्षाचर्या द्वारा आहार-पानी प्राप्त करे और यथासमय दिन में ही उसका सेवन करे - खाए-पीए। रात में भोजन का एक कण भी रखना दोषयुक्त है।
इस आहारचर्या का विशुद्ध एवं निर्बाध रूप में परिपालन हो, इस दृष्टि से उपर्युक्त सूत्रों में चार भंगों द्वारा आहार विषयक दोषपूर्ण, प्रायश्चित्त योग्य चर्या का वर्णन किया गया है, जिससे भिक्षु अपनी चर्या के यथावत् अनुसरण में सर्वदा जागरूक एवं सावधान रहे। - अनागाट स्थिति में रात्रि में आहार रखने आदि का प्रायश्चित्त
जे भिक्खू असणं वा पाणं वा खाइमं वा साइमं वा अणागाढे परिवासेइ परिवासेंतं वा साइजइ॥ ८१॥
जे भिक्खू परिवासियस्स असणस्स वा पाणस्स वा खाइमस्स वा साइमस्स वा तयप्पमाणं वा भूइप्पमाणं वा बिंदुप्पमाणं वा आहारं आहारेइ आहारेंतं वा साइजइ ॥ ८२॥
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