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निशीथ सूत्र
विवेचन - 'सम्' तथा 'अव' उपसर्ग और 'भ्वादिगण' एवं 'जुहोत्यादिगण' में कथित, परस्मैपदी 'सृ' धातु के योग से समवसरण पद बनता है। 'स्' धातु गमन, प्रसरण आदि के अर्थ में है। तदनुसार समवसरण का अर्थ सम्यक् अवसृत होना, गतिशील होना अथवा गतिशीलता, सक्रियता पूर्वक अपने आपको व्यक्त करना, प्रकट करना, सम उपस्थित करना है, तदनुरूप स्वभावानुकूल कार्यकलाप को समुदित करना है। .. भिक्षु के लिए एक वर्ष में वर्षाकाल, हेमन्तकाल एवं ग्रीष्मकाल के रूप में चार-चार. मास के तीन समवसरण माने गए हैं। आगमों में इनका उल्लेख हुआ है। इसका अभिप्राय यह है कि भिक्षु इस समयावधि विभाजन के अन्तर्गत जो प्रावृट्कालीन चातुर्मास कल्प तथा एक मास कल्प के रूप में वर्णित है, स्वकल्याण और परकल्याण की दृष्टि से समुद्यत, सत्कार्यशील रहता है। स्वाध्याय, ध्यान एवं तपश्चरण स्वकल्याण के साधक हैं और जन-जन के लिए धर्मोपदेश तथा आध्यात्मिक प्रेरणा परकल्याण या लोककल्याण के हेतु हैं।
इस सूत्र में प्रथम समवसरण में अर्थात् चातुर्मास के प्रारम्भ में वस्त्र ग्रहण करने का, लेने का निषेध किया गया है।
यहाँ प्रयुक्त 'पत्ताई' पद की संस्कृत छाया ‘प्राप्तानि' तथा 'पात्राणि' दो रूपों में बनती है। ‘प्राप्तानि' का अर्थ यथाकाल, यथाक्षेत्र का विधिवत् प्राप्त होना है। 'पात्राणि' का अर्थ पात्र है। कतिपय विद्वानों ने इस संदर्भ में 'पत्ताई' का अर्थ पात्र स्वीकार करते हुए पात्र और वस्त्र दोनों लेना प्रायश्चित्त योग्य कहा है। __ यहाँ प्राप्तानि अर्थ ही अधिक संगत है। क्योंकि यदि पात्र और वस्त्र दोनों को प्रायश्चित्त योग्य बताना होता तो 'पत्ताई' के बाद 'वा' का प्रयोग आवश्यक था, क्योंकि आगम में इसी विधा से सर्वत्र वर्णन हुआ है। - बृहत्कल्प सूत्र के अन्तर्गत तृतीय उद्देशक में चातुर्मास में वस्त्र ग्रहण करने का निषेध हुआ है और इस सूत्र में वस्त्र ग्रहण विषयक प्रायश्चित्त कहा गया है। अतः यहाँ 'पत्ताई' का 'पात्र' विषयक अर्थ संगत नहीं होता। ।
॥ इति निशीथ सूत्र का दशम उद्देशक समाप्त॥
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