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निशीथ सूत्र
इस प्रकार के सौहार्दमय एवं सहानुभूतिपूर्ण व्यवहार से ग्लान साधु को शान्ति प्राप्त होती है।
उपर्युक्त सूत्रों में इन स्थितियों के विपरीत आचरण करने वाले भिक्षु को प्रायश्चित्त योग्य बतलाया है, क्योंकि उस प्रकार के उपेक्षापूर्ण व्यवहार से साधु संघ में पारस्परिक वैयावृत्य, सेवा की भावना एवं मानसिकता क्षीण होती है।
योगीराज भर्तृहरि ने भी सेवा का बड़ा महत्त्व बतलाया है - 'सेवाधर्मो परमगहनो योगिनामप्यगम्यः' सेवा रूप धर्म अत्यन्त गहन, कठिन एवं महान है, योगियों के लिए भी उसे साध पाना अगम्य है।
इसीलिए महापुरुषों का वचन है कि वे धन्य हैं जो वैयावृत्य या सेवा में तन्मय रहते हुए आनन्दानुभूति करते हैं।
वर्षाकाल में विहार करने का प्रायश्चित्त जे भिक्खू पढमपाउसम्मि गामाणुगामं दूइज्जइ दूइजंतं वा साइज्जइ॥ ४०॥
जे भिक्खू वासावासं पजोसवियंसि गामाणुगामं दूइज्जइ दूइज्जंतं वा साइज्जइ॥४१॥
कठिन शब्दार्थ - पढमपाउसम्मि - प्रथम प्रावृट्काल में - वर्षावास के प्रथम काल चातुर्मास के ५० दिनों में, वासावासं - वर्षावास में, पज्जोसवियंसि - पर्युषण संवत्सरी के अनन्तर। ... भावार्थ - ४०. जो भिक्षु प्रथम प्रावृट्काल में - पर्युषण से पूर्ववर्ती चातुर्मास्यकाल में ग्रामानुग्राम विहार करता है या विहार करते हुए का अनुमोदन करता है। ... ४१. जो भिक्षु वर्षावास में पर्युषण के अनन्तर ग्रामानुग्राम विहार करता है या विहार करते हुए का अनुमोदन करता है।
ऐसा करने वाले भिक्षु को गुरु चौमासी प्रायशिचत्त आता है।
विवेचन - प्रावृट्काल या वर्षाकाल चार मास का होता है। पर्युषण से पहले का समय पूर्वकाल तथा पर्युषण के बाद का समय पश्चात्काल या उत्तरकाल कहा जाता है।
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