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दशम उद्देशक - ग्लान के वैयावृत्य में प्रमाद का प्रायश्चित्त
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योग्य पदार्थ प्राप्त न हों तो वह यदि ग्लान के पास वैसा आख्यात न कहे - न कहे अथवा वैसा न कहते हुए का अनुमोदन करता है। ।
उपर्युक्त रूप में आचरण करने वाले भिक्षु को गुरु चातुर्मासिक प्रायश्चित्त आता है। .
विवेचन - भिक्षु जीवन में पारस्परिक वैयावृत्य या सेवा का अत्यन्त महत्त्व है। वह तन-मन से भलीभाँति की जाए यह अपेक्षित है, क्योंकि भिक्षु संसार त्यागी होते हैं। न कोई उनके पारिवारिक होते हैं, न बन्धु-बान्धव ही। उनकी जीवन यात्रा आत्मनिर्भरता तथा पारस्परिक सहयोगिता पर अवस्थित होती है। रोग-आतंक आदि से पीड़ित भिक्षु की सेवा में जरा भी असावधानी, अरुचि और ग्लानि न हो, इस दृष्टि से इन सूत्रों में आया हुआ वर्णन अतीव प्रेरणाप्रद है। ___ ज्यों ही कोई भिक्षु किसी साधु के रोगादि कष्ट के संबंध में सुने, तत्काल उसे उसका पता लगाना चाहिए और उसके पास अविलम्ब पहुँचना चाहिए, उसकी यथावश्यक सेवा में यथावत् जुट जाना चाहिए। धार्मिक दृष्टि से तो इसका महत्त्व है ही। निर्जरा के बारह भेदों में वैयावृत्य नववाँ भेद है। वैयावृत्य से कर्मों की निर्जरा होती है, आत्मा निर्मल, उज्ज्वल बनती है। - मनोवैज्ञानिक दृष्टि से भी वैयावृत्य या सेवा का अत्यन्त महत्त्व है, क्योंकि क्रिया की प्रतिक्रिया होती है। जब किसी ए५. पक्ति में सेवा का अनन्य भाव होता है तो दूसरे में भी वैसा ही उत्पन्न होता है। इससे समग्र समुदाय में, संघ में सेवामय वातावरण निष्पन्न होता है, जिसके परिणामस्वरूप सभी परस्पर आश्वस्त होते हैं, भविष्य में आशंकित, रोगादि से चिंतित नहीं होते। वे जानते हैं कि समय पर उनकी यथायोग्य सेवा-व्यवस्था बनती रहेगी।
सेवा केवल खाने-पीने के पदार्थ, पथ्य, औषधि आदि द्वारा ही पूर्ण नहीं होती, ग्लान या रुग्ण के मन में शान्ति उपजाना भी आवश्यक होता है। यदि की जा रही सेवा, चिकित्सा आदि से ग्लान को यथेष्ट लाभ न हो तो वैयावृत्यकारी को ग्लान के समक्ष आकर खेद प्रकट करना चाहिए कि क्या किया जाए, मेरे बहुत प्रयत्न करने पर भी आपको पर्याप्त लाभ नहीं हो रहा है, जिसका मुझे दुःख है। 6. ग्लान के लिए अपेक्षित, आवश्यक औषधि, पथ्य आदि पदार्थ लाने का प्रयत्न करने पर भी यदि वे न मिल पाए तो वैयावृत्यकारी उसके पास जाकर यह प्रकट करे कि मैंने बहुत चेष्टा की, किन्तु वांछित वस्तुएं प्राप्त नहीं हो सकी, कृपया क्षमा करे।
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