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________________ २१८ निशीथ सूत्र उसको वहाँ से निकालकर - हटाकर परठता हुआ, मुँह, हाथ तथा पात्र को स्वच्छ करता हुआ धर्म का - जिनाज्ञा का उल्लंघन नहीं करता। जो स्वयं उसको खाता है, औरों को खाने हेतु देता है, वह रात्रिभोजन का प्रतिसेवी होता है। इस प्रकार जो उसका भोग - सेवन करता है अथवा सेवन करते हुए का अनुमोदन करता है। ३२. सूर्योदय के पश्चात् एवं सूर्यास्त से पूर्व आहारादि दैनंदिन प्रवृत्तियाँ करने के संकल्प से युक्त और तदनुकूल व्यवहरणशील जो समर्थ - सशक्त भिक्षु संदेह सहित आत्मपरिणामों से युक्त होता हुआ, अशन-पान-खाद्य-स्वाद्य रूप आहार ग्रहण करता हुआ, सेवन करता हुआ - खाता हुआ यदि ऐसा जाने कि "सूर्य उदित नहीं हुआ है या सूर्य अस्तमित हो गया है - छिप गया है" तो वह मुँह में, हाथ में तथा पात्र में जो आहार हो उसको वहाँ से निकालकर - हटाकर, परठता हुआ, मुँह, हाथ एवं पात्र को स्वच्छ करता हुआ जिनाज्ञा का अतिक्रमण - उल्लंघन नहीं करता। जो स्वयं उसको खाता है, औरों को खाने हेतु देता है, वह रात्रिभोजन का प्रतिसेवी होता है। इस प्रकार जो उसका भोग-सेवन करता है अथवा सेवन करते हुए का अनुमोदन करता है। ३३. सूर्योदय के पश्चात् और सूर्यास्त से पूर्व आहारादि दैनंदिन प्रवृत्तियाँ करने के संकल्प से युक्त एवं तदनुकूल व्यवहरणशील जो असमर्थ - अशक्त भिक्षु संदेह रहित आत्मपरिणामों से युक्त होता हुआ, अशन-पान-खाद्य-स्वाद्य रूप आहार ग्रहण करता हुआ,.. सेवन करता हुआ - खाता हुआ यदि ऐसा जाने कि "सूर्य उदित नहीं हुआ है या सूर्य अस्तमित हो गया. है - छिप गया है" तो वह मुँह में, हाथ में तथा पात्र में जो आहार हो, उसको वहाँ से निकाल कर - हटाकर परठता हुआ, मुँह, हाथ और पात्र को स्वच्छ करता हुआ जिनाज्ञा का अतिक्रमण - उल्लंघन नहीं करता। जो स्वयं उसको खाता है, औरों को खाने हेतु देता है, वह रात्रिभोजन का प्रतिसेवी होता है। इस प्रकार जो उसका भोग - सेवन करता है अथवा सेवन करते हुए का अनुमोदन करता है। ___ ३४. सूर्योदय के पश्चात् तथा सूर्यास्त से पूर्व आहारादि दैनंदिन प्रवृत्तियाँ करने के संकल्प से युक्त एवं तदनुकूल व्यवहरणशील जो असमर्थ - अशक्त भिक्षु संदेह सहित आत्मपरिणामों से युक्त होता हुआ, अशन-पान-खाद्य-स्वाद्य रूप आहार ग्रहण करता हुआ, सेवन करता हुआ - खाता हुआ यदि ऐसा जाने कि "सूर्य उदित नहीं हुआ है या सूर्य अस्तमित हो गया है - छिप गया है" तो वह मुँह में, हाथ में और पात्र में जो आहार हो, उसको वहा से निकालकर - हटाकर परठता हुआ, मुँह, हाथ तथा पात्र को स्वच्छ करता Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004200
Book TitleNishith Sutra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichand Banthiya, Parasmal Chandaliya
PublisherAkhil Bharatiya Sudharm Jain Sanskruti Rakshak Sangh
Publication Year2007
Total Pages466
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_nishith
File Size9 MB
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