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दशम उद्देशक - प्रायश्चित्त योग्य भिक्षु के साथ आहारादि संभोग विषयक दोष २१३
जे भिक्ख अणुग्घाइयं उग्घाइयं देइ देंतं वा साइजइ॥ १८॥
भावार्थ - १५. जो भिक्षु उद्घातिक - लघु प्रायश्चित्त स्थान को अनुद्घातिक - गुरु प्रायश्चित्त स्थान कहता है या वैसा कहते हुए का अनुमोदन करता है।
१६. जो भिक्षु अनुद्घातिक - गुरु प्रायश्चित्त स्थान को उद्घातिक - लघु प्रायश्चित्त स्थान कहता है या वैसा कहते हुए का अनुमोदन करता है।
१७. जो भिक्षु उद्घातिक - लघु प्रायश्चित्त स्थान का अनुद्घातिक - गुरु प्रायश्चित्त स्थान देता है या वैसा करते हुए का अनुमोदन करता है।
१८. जो भिक्षु अनुद्घातिक - गुरु प्रायश्चित्त स्थान का उद्घातिक - लघु प्रायश्चित्त स्थान देता है या वैसा करते हुए का अनुमोदन करता है।
उपर्युक्त रूप में आचरण करने वाले भिक्षु को गुरु चातुर्मासिक प्रायश्चित्त आता है।
विवेचन - इन चार सूत्रों के अन्तर्गत प्रथम दो सूत्रों में लघु प्रायश्चित्त स्थान को गुरु प्रायश्चित्त स्थान कहने तथा गुरु प्रायश्चित्त स्थान को लघु प्रायश्चित्त स्थान कहने का जो वर्णन आया है, वह विपरीत प्ररूपणा का द्योतक है। लघु को लघु ही कहा जाना चाहिए और गुरु को गुरु ही कहा जाना चाहिए। विपरीत कथन या निरूपण भ्रान्ति उत्पन्न करता है। अत एव वह दोष युक्त है। - अन्त के दो सूत्रों में लघु प्रायश्चित्त के स्थान पर गुरु प्रायश्चित्त देने एवं गुरु प्रायश्चित्त के स्थान पर लघु प्रायश्चित्त देने का जो कथन हुआ है, वह विपरीत मानसिकता, द्वेष भावना या राग भावना का सूचक है। भिक्षु के मन में ऐसी अनाश्रयणीय भावना कदापि नहीं आनी चाहिए। उसका सदैव यही प्रयत्न रहे कि उसकी मानसिकता रागात्मकता या द्वेषात्मकता से सर्वथा निवृत्त रहे, समता एवं शुचिता से ओत-प्रोत रहे।
प्रायश्चित्त योग्य भिक्षु के साथ आहारादि संभोग विषयक दोष जे भिक्खू उग्धाइयं सोच्चा णच्चा संभुंजइ संभुंजंतं वा साइजइ॥ १९॥ जे भिक्खू उग्घाइयहेउं सोच्चा णच्चा संभुंजइ संभुंजतं वा साइज्जइ॥२०॥ जे भिक्खू उग्घाइयसंकप्पं सोचाणच्चा संभुंजइ संभुजंतं वा साइज्जइ॥२१॥
जे भिक्खू उग्घाइयं उग्धाइयहेडं वा उग्घाइयसंकप्पं वा सोच्चा णच्चा संभुंजइ संभुंजंतं वा साइजइ॥ २२॥
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