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निशीथ सूत्र
भिक्षु पूछ-ताछ करके या पूछ-ताछ किए बिना तीन दिन से अधिक आहारादि करने का संबंध रखता है या वैसा करते हुए का अनुमोदन करता है, उसे गुरु चौमासी प्रायश्चित्त आता है। .
विवेचन - इस सत्र में प्रयुक्त 'साहिगरणं - साधिकरण' पद 'स' एवं 'अधिकरण' के योग से बना है। अधिकरणेन सहितं साधिकरणम्' अधिकरण सहित को साधिकरण कहा जाता है। 'अधिक्रियते - वशीक्रियते येन जनः तत् अधिकरण' जिसके द्वारा व्यक्ति अधिकृत या स्ववशगत कर लिया जाता है, उसे अधिकरण कहा जाता है। जैन शास्त्रीय परंपरा में अधिकरण शब्द कषाय का वाचक माना गया है। कषाय पर यह व्युत्पत्ति घटित होती है। कषाय व्यक्ति को अपने आपे में नहीं रहने देता, कषायोत्पन्न व्यक्ति अपने स्वरूप को भूल जाता है। क्रोध, मान, माया तथा लोभ रूप कषाय उसे जिधर खींचते हैं, वह उधर ही चलता जाता है। कषाय विजय का शास्त्रों में बड़ा महत्त्व स्वीकार किया गया है। __'कषायमुक्तिः किल मुक्तिरेव' अर्थात् कषायों से मुक्त होना - छूटना ही आवागमन से मुक्त होना है।
इस सूत्र में जो भिक्षु कषाय - कलुषित भिक्षु के साथ, जब तक वह अपने कलहक्लेश पूर्ण भाव को उपशांत न कर सका हो, तदर्थ प्रायश्चित्त न ले चुका हो, तीन दिन-रात से अधिक पूछ-ताछ किए बिना किसी भी प्रकार आहारादि विषयक संभोग - समव्यवहार रखना दोषपूर्ण बतलाया गया है। क्योंकि वैसा भिक्षु अपना आपा खोए हुए होता है, आत्मिक, मानसिक दृष्टि से स्वस्थ नहीं होता। उसके साथ आहारादि का व्यवहार रखने में अनेक असुविधाएं, कठिनाइयाँ या दोषापत्तियाँ आशंकित हैं। आत्मज्ञ, विज्ञ भिक्षु को ऐसी स्थिति को सदैव टाले रहना चाहिए। ___तीन दिन-रात की सीमा इसलिए दी गई है कि संभव है, वह इस अवधि में आत्मस्थ बन सके, कलह - कषाय पूर्ण भाव से रहित हो सके। यदि ऐसा न हो तो फिर पूछने - न पूछने का कोई अर्थ ही नहीं रह जाता।
विपरीत प्रायश्चित्त विधान विषयक दोष जे भिक्खू उग्घाइयं अणुग्घाइयं वयेइ वयंतं वा साइजइ॥ १५॥
जे भिक्खू अणुग्घाइयं उग्घाइयं वयइ वयंतं वा साइजइ॥ १६॥ .: जे भिक्खू उग्घाइयं अणुग्घाइयं देइ देंतं वा साइज्जइ॥ १७॥
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