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निशीथ सूत्र
इस प्रकार उपर्युक्त २९ सूत्रों में किए गए किसी भी प्रायश्चित्त स्थान का, तद्गत दोषों का सेवन करने वाले भिक्षु को अनुद्घातिक परिहार-तप रूप गुरु चातुर्मासिक प्रायश्चित्त आता है।
इस प्रकार निशीथ अध्ययन (निशीथ सूत्र) में नवम उद्देशक परिसमाप्त हुआ। ...
विवेचन - इन सूत्रों तथा पीछे के सूत्रों में राजा के विशेषणों में जो 'मुद्धाभिसित्ताणमूर्धाभिषिक्तानाम्' पद आया है, वह मूर्धाभिषिक्त का षष्ठी विभक्ति के बहुवचन का रूप है। मूर्धाभिषिक्त पद मूर्धा + अभिषिक्त के योग से बना है। 'मूर्ध्नि अभिषिक्तः, इति मूर्धाभिषिक्तः' यह सप्तमी तत्पुरुष समास है। अभिषिक्त का अर्थ अभिषेक किया हुआ होता है। जब नया राजा राजसिंहासनारूढ होता था तब मांगलिक क्रिया कलाप तथा मंत्रोच्चार के साथ उसके मस्तक पर - ललाट पर केशर, चन्दन आदि सुगन्धित द्रव्यों द्वारा अभिषेकपूर्वक तिलक किया जाता था। वृद्ध प्रपितामह, पितामह एवं पिता आदि से चले आते राज्य का स्वामी मूर्धाभिषिक्त राजा कहा जाता था। । राजा प्रायः क्षत्रिय वंशीय होते थे, किन्तु ब्राह्मण आदि शुद्ध मातृ-पितृ वंशीय राजा भी होते रहे हैं। उनके लिए 'मुदियाणं - मुदितानाम्' पद का प्रयोग है, जो षष्ठी विभक्ति का बहुवचनान्त रूप है। . 'मुदियाण' का संस्कृत रूप 'मुद्रितानाम्' भी होता है, जिसका अर्थ राजमुद्राधारी या विशेष राजचिन्ह धारक है। . .
यहाँ राजा के सहचर, अनुचर, परिचर, मनोरंजन आदि विविध प्रयोजनों हेतु नियुक्त भृत्य, सेवक आदि का जो वर्णन आया है, उससे यह प्रतीत होता है कि प्राचीनकाल में राजाओं का ठाठ-बाट बहुत रोबीला तथा शान-शौकत युक्त होता था। राजाओं में बाह्य सज्जा, प्रदर्शन और मनमौजीपन कितना अधिक था, इस वर्णन से अनुमेय है। .
विविध प्रकार की, विविध देशोत्पन्न दासियों का जो वर्णन आया है, उससे ऐसा लगता है कि अन्तःपुर में बहुत धूम-धाम रहती थी। विविध देशोत्पन्न, विविध भाषा-भाषिणी दासियों का एक साथ रहना अपने आप में एक अजूबा था। प्राचीनकाल में न केवल भारत में ही वरन् विभिन्न देशों में दास-प्रथा कितनी व्यापक थी, वह यहाँ वर्णित दासियों के नामों से ज्ञात होता है। उन दास-दासियों का जीवन कितना पराश्रित और दयनीय रहा होगा, यह कल्पनातीत है।
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