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नवम उद्देशक - राजा के कोष्ठागारादि के विषय में जानकारी बिना.....
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दुर्भिक्ष पीड़ितों, दुष्काल पीड़ितों, दीन हीनों, जीर्ण रोगियों, वर्षा पीड़ितों तथा अतिथियों के लिए भोज्य सामग्री तैयार कराने का जो उल्लेख हुआ है, उससे प्रकट होता है कि प्राचीनकाल के राजा जन-जन के कष्टों और असुविधाओं का विशेष रूप से ध्यान रखते थे। जिस प्रकार अपने यहाँ कार्य करने वाले अनेक प्रकार के कर्मचारियों के खान-पान की चिंता रखी जाती थी, उसी प्रकार अभावग्रस्तों, रुग्णजनों, अतिथियों और राहगीरों की भी चिंता की जाती थी। राजा अपना यह दायित्व या कर्त्तव्य मानता था कि उसके राज्य में रहने वाले अनाश्रित लोग भी कष्ट न पाएं।
महाकवि भवभूति रचित 'उत्तररामचरितम्' नामक नाटक में एक स्थान पर मर्यादापुरुषोतम राम कहते हैं :
'स्नेहं दयां च सौख्यं च, यदि वा जानकीमपि। - आराधनाय लोकस्य, मुञ्चतो नास्ति में व्यथा
लोकाराधना के लिए - जन-जन के सुख के लिए, प्रसन्नता के लिए स्नेह, दया, अपना सुख तथा सीता को भी यदि छोड़ना पड़े तो मुझे कोई व्यथा नहीं होगी। राम की इस उदात्त, लोकहितैषिणी भावना और वृत्ति के कारण ही 'राम राज्य' को आदर्श राज्य कहा गया है। उत्तरवर्ती राजा भी यथासंभव मर्यादापुरुषोतम श्रीराम के आदर्शों का अनुसरण करते रहे। इसी कारण प्रजा का इनमें विश्वास और आदर रहा। .. आगे चलते-चलते राजा स्वार्थान्ध तथा भोगलोलुप बनते गए। लोगों का दुःख दर्द . मिटाने से उनका ध्यान हटता गया। उसी का यह परिणाम है कि राजतन्त्र आज विश्व में लगभग समाप्त हो चुका है। ___अस्तु, उपर्युक्त सूत्र में भिक्षु के लिए राजा द्वारा निष्पादित विविध प्रकार की भोज्य सामग्री विषयक विविध व्यवस्थाओं में से आहार लेना जो प्रायश्चित्त योग्य बतलाया गया है, उसका कारण जैसा पहले सूचित किया गया है, हिंसामूलक आरम्भ-समारम्भ तथा जिनके लिए भोज्य सामग्री तैयार हुई हों, उनके लिए अंतराय होने की आशंका है। राजा के कोष्ठागारादि के विषय में जानकारी बिना भिक्षार्थ जाने का प्रायश्चित्त
जे भिक्खू रण्णो खत्तियाणं मुदियाणं मुद्धाभिसित्ताणं इमाइं छद्दोसाययणाई अजाणिय अपुच्छिय अगवेसिय परं चउरायपंचरायाओ गाहावइकुलं
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