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निशीथ सूत्र
भावार्थ ४. जो भिक्षु स्त्री के साथ मैथुन सेवन के भाव से लोहे, ताँबे, रांगे, सीसे, चाँदी या सोने के कड़े - अलंकरण विशेष बनाता है अथवा बनाते हुए का अनुमोदन करता है। ५. जो भिक्षु स्त्री के साथ मैथुन सेवन के भाव से लोहे, ताँबे, रांगे, सीसे, चाँदी या सोने के कड़े धारण करता है अथवा धारण करते हुए का अनुमोदन करता है ।
६. जो भिक्षु स्त्री के साथ मैथुन सेवन के भाव से लोहे, ताँबे, रांगे, सीसे, चाँदी या सोने के कड़े परिभोग करता है अथवा परिभोग करते हुए का अनुमोदन करता है।
ऐसा करने वाले भिक्षु को गुरु चौमासी प्रायश्चित्त आता है।
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विवेचन - संस्कृत और प्राकृत में लोह शब्द लोहर नामक धातु के अर्थ में प्रयुक्त है। इन सूत्रों में जो लोह शब्द का प्रयोग हुआ है, वह देशी है। धातु विशेष द्वारा निर्मापित आकार विशेष - अलंकरण विशेष का यह सूचक है । अलंकरणों में भी कटक या कड़े का सर्वाधिक उपयोग होता है । भुजा, कलाई या पैर तीनों ही स्थानों पर कुछ-कुछ परिवर्तित आकारों में प्रयोग में आता है। तदनुसार इसके नाम भी भिन्न-भिन्न हो जाते हैं, किन्तु सामान्यतः कटक या कड़ा उन सबका सूचक होता है।
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निशीथ सूत्र के टब्बों (हस्तलिखित संक्षिप्त अर्थों) की प्रतियों में 'अयलोहाणि ' आदि शब्दों में आये हुए 'लोहाणि' शब्द का 'कमाना किया है। भट्ठी में तपाकर कूटने को कूटकर वस्तु बनाने को 'कमाना' कहते हैं। निशीथसूत्र की चूर्णि से भी ऐसा ही भावार्थ निकलता है। चूर्णि वाली प्रति के मूलपाठ में तो 'परिभुंजड़' शब्द ही दिया है। टब्बे वाली एवं अन्य प्रतियों में भी 'परिभुजइ' शब्द ही दिया है। स्वर्ण आदि को कमाने से कड़े आदि का निर्माण हो सकता है। इस कारण से चूर्णिकार ने 'पिण ' शब्द का प्रयोग किया हो, ऐसी संभावना हो सकती है। 'परिभुंजड़' शब्द व्यापक होने से 'लोहाणि' आदि के सूत्रों में 'परिभुंजड़' शब्द का प्रयोग होना अधिक उपयुक्त ध्यान में आता है।
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चूर्णि के पाठ "धर्मत फर्मतस्स संजम छक्काय विराहणा। राउले भूइज्जइ (सूइज्जइ) तत्थ बंधणा दिया य दोसा । जम्हा एते दोसा तम्हा णो करेति णो धरेति णो पिणद्धेति । " का आशय इस प्रकार ध्यान में आया है "लोह, स्वर्ण आदि धातुओं को धमने से अग्नि में लोहारों की तरह तपाने से, फूंकने से, भस्मादि बनाने से अथवा अनेक प्रकार की वस्तुओं के संयोग से धातु वादियों की तरह स्वर्ण
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