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षष्ठ उद्देशक - कामुकतावश स्व-पाद-आमर्जनादि का प्रायश्चित्त
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है। "मातृ" माता का वाचक है तथा ग्राम समुदाय, समूह या जाति का वाचक है। स्त्रियों के लिए भारतीय वाङ्मय में मातृ शब्द का प्रयोग दृष्टिगोचर होता है। चाणक्य नीति में उल्लेख हुआ है - .
मातृवत् परदारेषु परद्रव्येषु लोष्टवत्। आत्मवत् सर्वभूतेषु यः पश्यति स पण्डितः॥
जो पर स्त्रियों को माता के समान, दूसरे के धन को पत्थर के समान तथा सभी प्राणियों को अपने समान देखता है, मानता है, वही वास्तव में पण्डित, ज्ञानी है। ___ इस प्रकार और भी अनेक स्थानों पर नारी जाति के लिए मातृ पद या सम्मान सूचक शब्दों का प्रयोग होता रहा है।
जब सपत्नीक पुरुष के लिए पत्नी के अतिरिक्त सभी नारियाँ मातृवत् हैं तो भिक्षु के लिए तो, जो ब्रह्मचारी है, कहना ही क्या है ? जगत् की समस्त नारियाँ उसके लिए माताएँ हैं।
कामविजय वस्तुतः अत्यंत दुर्गम है। यद्यपि भिक्षु ब्रह्मचर्य का नव बाड़ और दशवें कोट के साथ परिरक्षण में सर्वदा, सर्वथा उद्यत रहता है। इन सूत्रों में जो कामविषयक कुटेवों का उल्लेखः हुआ है, उनमें वह नहीं फंसता। क्योंकि ये अत्यन्त जघन्य कोटि की कुत्सित प्रवृत्तियाँ हैं। पूर्वोक्त रूप में येन-केन प्रकारेण स्त्री को मैथुन हेतु आकर्षित करना, बाध्य करना, लालायित करना - यों स्वायत्त करना साध्वाचार एवं ब्रह्मचर्य व्रत के विपरीत है। .
उत्तराध्ययन सूत्र में कहा है -
संसार मोक्खस्स विपक्खभूया, खाणी अणत्थाण हु कामभोगा *। ___ कामभोग संसार और मोक्ष के विपक्षभूत हैं। (लौकिक और पारमार्थिक - दोनों ही दृष्टियों से) दुष्फलप्रद हैं। वे अनर्थों की खान हैं।
. मानवजीवन की बड़ी विचित्र स्थिति है। तीव्र वेदमोह के उदय से उत्कट ब्रह्मचारी का • भी पतित होना आशंकित है। वह कभी भी ऐसी कामुक दुष्प्रवृत्तियों में न फँस जाए उसके परिणाम ब्रह्मचर्य में हेतु एवं अविचल बने रहें अत एव उनका यहाँ विशद वर्णन किया गया है। ऐसी प्रवृत्तियाँ सर्वथा परिहेय एवं परित्याज्य हैं।
प्रथम तथा तृतीय उद्देशक में इससे संबंध विषयों पर जो विवेचन हुआ है, वह यहाँ दृष्टव्य है।
॥इति निशीथ सूत्र का षष्ठ उद्देशक समाप्त॥
+ उत्तराध्ययन सूत्र, अध्ययन १४ गाथा १३
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