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पंचम उद्देशक - रजोहरण के अनियमित प्रयोग का प्रायश्चित्त
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६८. जो भिक्षु रजोहरण के एक बंध देता है - गांठ लगाता है या वैसा करते हुए का अनुमोदन करता है।
६९. जो भिक्षु रजोहरण के गेंद जैसी बड़ी गाँठ लगाता है या वैसा करते हुए का अनुमोदन करता है।
७०. जो भिक्षु रजोहरण को अविधि पूर्वक बांधता है - गाँठ लगाता है या वैसा करते हुए का अनुमोदन करता है।
(७१. जो भिक्षु रजोहरण को एक बंध से बांधता है या वैसा करते हुए का अनुमोदन करता है।)
७२. जो भिक्षु रजोहरण के तीन से अधिक बंध देता है - गांठें लगाता है या वैसा करते हुए का अनुमोदन करता है।
७३. जो भिक्षु कल्पविरुद्ध (अकल्पनीय तीर्थंकरों की आज्ञा से अदत्त या गुरु आदि की आज्ञा के बिना) रजोहरण को धारण करता है या धारण करते हुए का अनुमोदन करता है। ___७४. जो भिक्षु रजोहरण को स्वंदेह प्रमाण (साढ़े तीन हाथ या पाँच हाथ प्रमाण) से अधिक दूर रखता है या वैसा करते हुए का अनुमोदन करता है।
७५. जो भिक्षु क्षण-क्षण रजोहरण पर अधिष्ठित - आश्रित होता है या रहता है अथवा । वैसा करते हुए का अनुमोदन करता है। ___७६. जो भिक्षु रजोहरण को सिर के नीचे (शिरोधान - तकिये की तरह) स्थापित करता है - रखता है या वैसा करते हुए का अनुमोदन करता है।
७७. जो भिक्षु. रजोहरण को करवट में रखता है या वैसा करते हुए का अनुमोदन करता है। इन तथाकथित दोष-स्थानों का सेवन करने वाले भिक्षु को लघुमासिक प्रायश्चित्त आता है।
उपर्युक्त ७७ सूत्रों में किए गए किसी भी प्रायश्चित्त स्थान के सेवन करने वाले भिक्षु को परिहार स्थान उद्घातिक - लघुमासिक प्रायश्चित्त आता है।
इस प्रकार निशीथ अध्ययन (निशीथ सूत्र) में पंचम उद्देशक परिसमाप्त हुआ।
विवेचन - "रजः - रजः कणान् हरति - दूरी करोति इति रजोहरणम् अथवा रजः-रजः कणा ह्रियन्ते दूरी क्रियन्ते येन तत् रजोहरणम्" जिससे रजःकरण दूर किए जाते हैं, गन्तव्य स्थान या भूमि का प्रमार्जन किया जाता है, उसे रजोहरण
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