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पंचम उद्देशक - औद्देशिक आदि स्थान में प्रवेश-प्रवास विषयक प्रायश्चित्त
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उपर्युक्त सूत्र में बताई हुई "औद्देशिक शय्या को - आधाकर्म, औदेशिक आदि अविशुद्ध कोटि के दोष वाली" नहीं समझना चाहिए। क्योंकि उसका तो आधाकर्मी वस्त्र, पात्र, आहार की तरह-गुरु चातुर्मासिक प्रायश्चित्त बताया है। यहाँ पर तो सभी श्रमणों के लिए बनाई गई "समणाणं उद्देशो" समण माहण आदि के समुच्चय उद्देश्य वाली शय्या समझना चाहिए। आचारांग सूत्र के द्वितीय श्रुतस्कन्ध के दूसरे अध्ययन में वर्णित अनभिक्रान्त आदि क्रिया वाली शय्याओं में अपुरुषान्तक अवस्था में प्रवेश करने पर औद्देशिक शय्या समझनी चाहिए।
भवन निर्माण में अत्यधिक आरंभ-समारम्भ होता है। उसे 'कमट्ठाण - कर्म स्थान' कहा गया है। जहाँ विभिन्न सावध कर्मों का दोष लगता है। राजस्थान के थली जनपद में 'आज भी भवन निर्माण को 'कमठाणा' कहा जाता है, जो इसका अपभ्रंश रूप है। जिससे प्रकट होता है कि जैन दर्शन की चिन्तनधारा सामान्य लोकजीवन में इस क्षेत्र में कभी प्रसार पा चुकी थी। वर्तमान में भी सामान्यजन इस शब्द का प्रयोग तो करते हैं किन्तु संभवतः इसमें अन्तर्निहित मर्म को नहीं जानते। ___२. सप्राभृतिक - 'प्रकर्षण आ समन्तात् भ्रियते, पूर्यते इति प्राभृतम्, प्राभृतेन सहित सप्राभृतम्, सप्राभृतेन संबद्ध सप्राभृतिकम्' इस व्युत्पत्ति विग्रह के अनुसार प्राभूत उसे कहा जाता है, जो किसी के लिए भेंट स्वरूप विशेष रूप से तैयार की जाती है। वैसी वस्तुविशेष को सप्राभृतिक कहा जाता है।
अपने लिए भवन निर्माण करता हुआ कोई गृहस्थ साधुओं के आगमन को उद्दिष्ट कर उनकी सुविधा, अनुकूलता को दृष्टि में रखता हुआ निर्माण को आगे-पीछे करे, वैसा उस रूप में निर्मित स्थान सप्राभृतिक दोष युक्त है। आगमों में बतलाए गए सोलह उद्गम दोषों में यह 'पाहुडिया' संज्ञक छठा दोष है। 'पाहुडिया' 'प्राभृतक' का प्राकृत रूप है। .... 3. सपरिकर्म - 'परि समन्तात् क्रियते इति परिकर्म:' के अनुसार किसी कार्य को विविध रूप में, विस्तार पूर्वक करना, उपयोग योग्य बनाना परिकर्म है। इसका सज्जा के अर्थ में विशेष रूप से प्रयोग होता है। साधुओं के संभावित प्रवास को दृष्टिगत रखते हुए भवन की विविध प्रकार से साज-सज्जा करना, सफाई करना, वायु के आगमन को न्यूनाधिक करना, द्वार को सुविधानुरूप छोटे-बड़े रूप में परिवर्तित करना, भूमि को सम-विषम करना, अचित्त भारी वस्तुओं को इधर-उधर करना, रंगाई-पुताई कराना, विशेष स्वच्छता एवं मरम्मत करवाना इत्यादि सपरिकर्म दोष के अन्तर्गत हैं।
इनमें पृथ्वीकाय, अप्काय, वायुकाय, तेजस्काय इत्यादि जीवों की विराधना सन्निहित है।
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