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निशीथ सूत्र
यदि बना बनाया दण्ड प्राप्त न हो तो अचित्त काष्ठ आदि का दण्ड बनाना, उसे धारण करना एवं उपयोग में लेना भिक्षु के लिए दोषयुक्त नहीं है। क्योंकि वह दैहिक स्थिति के कारण अपरिहार्य रूप में अपेक्षित है।
अचित्त काष्ठ आदि से दण्ड बनाते, धारण करते या उपयोग में लेते समय यह ध्यान में रहना चाहिए कि अचित्त काष्ठ कीट आदि जीव युक्त न हो, अपने स्वाभाविक रंग में हो, रंगा हुआ न हो। भिक्षु स्वयं भी उसे एक या अनेक रंगों से न रंगे, क्योंकि ऐसा करना उसे सुन्दर और आकर्षक बनाना है, जो भिक्षु के लिए अस्वीकार्य है। भिक्षु के जीवन में त्याग, तप एवं साधना का ही आकर्षण हो, बाह्य आकर्षणों का उसके लिए कोई मूल्य नहीं है। वे निरर्थक हैं, त्याज्य हैं। .
दण्ड की सुरक्षा आदि के लिए उस पर कोई लेप आदि करना आवश्यक हो तो वह सज्जा में नहीं गिना जाता। अत एव वैसा करना अविहित नहीं है।
नवस्थापित ग्राम आदि में भिक्षा ग्रहण करने का प्रायश्चित्त जे भिक्खू णवगणिवेसंसि वा गामंसि वा जाव सण्णिवेसंसि वा अणुप्पविसित्ता असणं वा पाणं वा खाइमं वा साइमं वा पडिग्गाहेइ पडिग्गाहेंतं वा साइजइ॥३२॥
कठिन शब्दार्थ - णवगणिवेसंसि - नवस्थापित, गामंसि - ग्राम - गाँव में, सण्णिवेसंसि - सन्निवेश - व्यापारिक काफिले या सार्थवाह सेना के अस्थायी निवास हेतु बने कुटीर (कैम्प, शिविर)।
भावार्थ - ३२. जो भिक्षु नवस्थापित ग्राम यावत् सन्निवेश में अनुप्रविष्ट होकर अशनपान-खाद्य-स्वाद्य रूप चतुर्विध आहार प्रतिगृहीत करता है - लेता है अथवा वैसा करते हुए का अनुमोदन करता है।
विवेचन - नवस्थापित गांव आदि में भिक्षु का प्रवेश करना तथा भिक्षा लेना उपर्युक्त सूत्र में जो प्रायश्चित्त योग्य बतलाया गया है, उसका आशय यह है कि कतिपय अन्यतीर्थानुयायी जन जैन भिक्षुओं के आगमन को (यद्यपि वास्तव में वैसा कुछ है नहीं किन्तु) स्वगत लौकिक मान्यतावश अपशकुन के साथ जोड़ लेते हैं। तदनुसार उनके मन में अप्रसन्नता, व्यथा आदि विपरीत भाव उत्पन्न होना आशंकित है।
जो जैन भिक्षुओं के आगमन को शुभ शकुन रूप मानते हैं, उनके मन में अत्यधिक
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