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चतुर्थ उद्देशक - परिष्ठापना समिति विषयक-दोष प्रायश्चित्त
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प्रतिलेखन करता है, खुड्डागंति - अति संकुचित - एक हाथ प्रमाण से कम, थंडिलंसि - स्थण्डिल भूमि में, पुंछइ - पोंछता है, कद्वेण - काण्ठ से, किलिंचेण - बांस की सींक से, अंगुलियाए - अंगुली से, सलागाए - शलाका से - लोह आदि की सींक से, आयमइ - आचमन - शौच - शुद्धि करता है, तत्थेव - वहीं पर, अइ दूरे - बहुत दूर, परं तिण्ह - तीन से अधिक, णावापूराणं - नाव के आकार में बनाई हुई हथेली - चुल्लु।
भावार्थ - १०५. जो भिक्षु दिवस की चतुर्थ पौरुषी (पोरसी) के चतुर्थ भाग में उच्चार-प्रस्रवण भूमि का प्रतिलेखन नहीं करता या प्रतिलेखन नहीं करते हुए का अनुमोदन करता है।
१०६. जो भिक्षु तीन उच्चार-प्रस्रवण भूमियों का प्रतिलेखन नहीं करता या प्रतिलेखन नहीं करते हुए का अनुमोदन करता है। . १०७. जो भिक्षु अति संकुचित - एक हाथ प्रमाण से कम स्थण्डिल भूमि में उच्चारप्रस्रवणा परठता है या परठते हुए का अनुमोदन करता है।
१०८. जो भिक्षु अविधि - विधि के विपरीत उच्चार-प्रस्रवण परठता है या परठते हुए का अनुमोदन करता है। .
१०९. जो भिक्षु उच्चार-प्रस्रवण परठ कर (मलद्वार को) नहीं पोंछता या नहीं पोंछते हुए का अनुमोदन करता है।
११०. जो भिक्षु उच्चार-प्रस्रवण परठ कर (मलद्वार को) लकड़ी से, बांस की सींक से, अंगुली से. या लोह शलाका से पोंछता है या पोंछते हुए का अनुमोदन करता है। ...१११. जो भिक्षु उच्चार-प्रस्रवण परठ कर शौच शुद्धि नहीं करता या आचमन नहीं करते
हुए का अनुमोदन करता है। ___ ११२. जो भिक्षु उच्चार-प्रस्रवण परठ कर वहीं पर शौच शुद्धि करता है या आचमन करते हुए का अनुमोदन करता है।
११३. जो भिक्षु उच्चार-प्रस्रवण परठ कर बहुत (सौ हाथ से अधिक) दूर जाकर शौच शुद्धि करता है या वैसा करते हुए का अनुमोदन करता है।
- ११४. जो भिक्षु उच्चार-प्रस्रवण परठ कर तीन से अधिक, नाव के आकार में की हुई हथेली या चुल्लु से आचमन करता है अथवा आचमन करते हुए का अनुमोदन करता है।
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