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निशीथ सूत्र
४७: जो भिक्षु शौर्य आदि गुण कीर्तन द्वारा अरण्यरक्षक की प्रशंसा करता है या प्रशंसा करते हुए का अनुमोदन करता है।
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४८. जो भिक्षु अरण्यरक्षक को अपना अर्थी - सहयोगापेक्षी बनाता है या सहयोगापेक्षी बनाते हुए का अनुमोदन करता है।
ऐसा करने वाले भिक्षु को लघुमासिक प्रायश्चित्त आता है।
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विवेचन - जो भिक्षु ग्रामरक्षक, सीमारक्षक तथा अरण्यरक्षक या वनरक्षक को मन्त्रादि द्वारा अपने अधीन, शौर्यादि गुणकीर्तन द्वारा प्रशंसित, रुग्णावस्था में औषधि, मन्त्र, यन्त्र आदि द्वारा निरोग और स्वसहयोगार्थी - अपने सहयोग के बिना उसका कार्य न चल सके, ऐसी स्थिति युक्त बनाता है, उसे उपर्युक्त सूत्रों में प्रायश्चित्त का भागी कहा गया है। इनको अपने वश में बना लेने से भिक्षु का ग्राम में, उसके सीमावर्ती स्थानों में, अरण्य या वन में प्रभाव बढ़ जाता है। वहाँ रहने वाले लोग यह जानकर कि ग्रामरक्षक आदि इस भिक्षु के अधीन हैं, वे भयभीत या आतंकित रहते हैं। इस कारण भिक्षु अपनी आवश्यकताओं की पूर्ति में अपनी इच्छा के अनुरूप उनसे अनुचित लाभ उठा सकता है, इससे उसमें उच्छृंखलता आ जाना आशंकित है, जो संयम की सम्यक् आराधना में बाधक है।
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भिक्षु के लिए लौकिक प्रभाव बढ़ाना किसी भी प्रकार उचित नहीं है। अध्यात्म-साधनाप्रवण जीवन के सम्यक् निर्वाह हेतु लोगों से प्रासुक, निरवद्य, एषणीय आहार, वस्त्र, पात्र आदि आवश्यक उपधि प्राप्त करना तथा लोगों को धर्मानुप्राणित करना, धार्मिक उपदेश देना इतना ही अपेक्षित है।
अन्तिम चार सूत्रों में 'रण्णारक्खियं' शब्द का प्रयोग हुआ है । प्राकृत व्याकरण के अनुसार अरण्य शब्द का प्राकृत रूप 'रण' होता है। प्रारम्भ के अकार का लोप हो जाता है। कार के साथ जो यकार मिला हुआ है, वह समीकरण के नियमानुसार 'ण' बन जाता है । इस प्रकार 'रण' रूप सिद्ध होता है, जिसका अर्थ वन है ।
प्राकृत व्याकरण के अनुसार 'राजन्य' शब्द को 'रण' आदेश होता है । व्याकरण में प्रतिपादित 'शत्रुवत् आदेशः " के अनुसार जैसे शत्रु आकर जब किसी स्थान पर अधिकार करता है तो उस स्थान पर पूर्वतन व्यवस्था लुप्त हो जाती है, उसकी नूतन व्यवस्था स्थापित होती है। इसी प्रकार व्याकरण में आदेश होने का तात्पर्य पिछले रूप का लोप और
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