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चतुर्थ उद्देशक - सचित्त संस्पृष्ट हाथ आदि से आहार लेने का प्रायश्चित्त
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मूल, अदरक, पुष्प या सुगंधित द्रव्य से संस्पृष्ट हाथ, मृत्तिका पात्र, कुड़छे या धातु पात्र से अशन-पान-खाद्य-स्वाद्य रूप चतुर्विध आहार ग्रहण करता है या ग्रहण करते हुए का अनुमोदन करता है।
ऐसा करने वाले भिक्षु को लघु मासिक प्रायश्चित्त आता है।
विवेचन - साधु आहार विषयक चर्या में अत्यन्त जागरूक रहे, सचित्त संस्पृष्ट को न लेने का सदैव ध्यान रखे। क्योंकि उसमें स्पष्ट रूप में जीवों की विराधना होती है। इन सूत्रों में सचित्त हाथ आदि द्वारा संस्पृष्ट तथा विभिन्न प्रकार के सचित्त पदार्थों द्वारा संस्पृष्ट आहार प्रतिगृहीत करना प्रायश्चित्त योग्य बतलाया गया है, उसमें पृथ्वीकाय, अप्काय, वनस्पतिकाय. इत्यादि की हिंसा होती है, जिससे प्राणातिपात विरमण रूप प्रथम महाव्रत खण्डित होता है। .. जैसा पहले व्याख्यात हुआ है, एक अहिंसा, महाव्रत के व्याहत होने पर पाँचों ही महाव्रत व्याहत हो जाते हैं।
. आगमों में संक्षिप्त रुचि और विस्तार रुचि के रूप में दो प्रकार के वर्णन प्राप्त होते हैं। कुंछ वर्णन अति संक्षिप्त - संकेत रूप में होते हैं जिन्हें योग्य श्रोता (पाठक) अपनी बुद्धि द्वारा समझ लेते हैं। ___सामान्यजनों को समझाने की दृष्टि से विस्तारपूर्वक कहना अपेक्षित है। इन सूत्रों में जिन पदार्थों का उल्लेख हुआ है, वे किसी न किसी रूप में गृहस्थों के यहाँ उपयोग में आते रहते हैं। अत: उनको यहाँ पृथक्-पृथक् निरूपित किया गया है, जिससे शुद्धाचरणशील भिक्षु कहीं भी शंकाशील न हो। - यहाँ चतुर्विध आहार ग्रहण करने का आशय यह नहीं है कि आहारार्थी भिक्षु जहाँ भिक्षा लेने जाता है, वहाँ चारों ही प्रकार के आहार लेता हो। इनमें से जहाँ जैसी आवश्यकता होती है, उसे ग्रहण करता है। अशन-पान तो सभी के लिए आवश्यक होते हैं। खाद्य, स्वाद्य
भी जहाँ पथ्य आदि हेतु लेना अपेक्षित हों, लिए जाते हैं। . उपरोक्त सूत्रों में अप्काय, पृथ्वीकाय एवं वनस्पतिकाय की विराधना की अपेक्षा से ये प्रायश्चित्त कहे गये हैं। अतः यहाँ ये सब पदार्थ सचित्त की अपेक्षा से गृहीत हैं। यदि किसी भी प्रयोगविशेष से ये वस्तुएं शस्त्र-परिणत होकर अचित्त हो गई हों और उनसे हाथ आदि लिप्त हों तो उन हाथों से आहार ग्रहण करने का कोई प्रायश्चित्त नहीं समझना चाहिए।
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