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चतुर्थ उद्देशक - राज-प्रशंसा आदि का प्रायश्चित्त
ऐसा करने वाले को लघुमासिक प्रायश्चित्त आता है।
विवेचन - इन सूत्रों के अन्तर्गत अन्तिम सूत्र में आए हुए 'सव्वारक्खिय' पद में राजा, राजा के अंगरक्षक, नगररक्षक, व्यापारिक केन्द्र के अधिष्ठायक तथा देशरक्षक- इन सबका समावेश हो जाता है। यह समष्टिबोधक पद है।
भिक्षु द्वारा राजा तथा उच्च अधिकारियों को वश में करना इन सूत्रों में दोषपूर्ण एवं प्रायश्चित्त योग्य बतलाया गया है। इनके अनुकूल या वशगत होने से भिक्षु की संयमाराधना में बाधा, शिथिलता आना आशंकित है। अपने वृद्धिंगत प्रभाव के कारण भिक्षु में अभिमान भी आ सकता है, जो साधु-जीवन के प्रतिकूल है।
राजा आदि को वश में करने के संदर्भ में प्रशस्त कारण, प्रशस्त प्रयत्न तथा अप्रशस्त कारण एवं अप्रशस्त प्रयत्न का व्याख्या-ग्रन्थों में वर्णन आता है। - संकटापन्न स्थितियों में संघहित की दृष्टि से राजा आदि को वशगत करना प्रशस्त कारण है।
संयम तथा तपोबल से प्राप्त विशिष्ट लब्धिसिद्धि द्वारा राजा आदि को वश में करना प्रशस्त प्रयत्न है।
किसी की प्रतिष्ठा बढाना, किसी का अहित करना अथवा अपना स्वार्थ सिद्ध करना - इन्हें उद्दिष्ट कर राजा आदि को वश में करना अप्रशस्त कारण है।
असत्य एवं छल-कपट आदि सावध प्रवृत्तियों द्वारा राजा आदि को वश में करना अप्रशस्त प्रयत्न है।
यहाँ प्रायश्चित्त का जो विधान किया गया है, वह प्रशस्त कारण और प्रशस्त प्रयत्न द्वारा राजा आदि को वश में करने से संबंधित है। ___ अप्रशस्त कारण और प्रयत्न द्वारा राजा आदि को वश में करने का प्रायश्चित्त अधिक निरूपित हुआ है।
राज-प्रशंसा आदि का प्रायश्चित्त जे भिक्खू रायं अच्चीकरेइ अच्चीकरेंतं वा साइज्जइ॥७॥ जे भिक्खू रायारक्खियं अच्चीकरेइ अच्चीकरेंतं वा साइजइ॥ ८॥ जे भिक्ख णगरारक्खियं अच्चीकरेइ अच्चीकरेंतं वा साइज्जइ॥९॥ जे भिक्खू णिगमारक्खियं अच्चीकरेइ अच्चीकरेंतं वा साइजइ॥ १०॥
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