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________________ विपाक सूत्र-प्रथम श्रुतस्कन्ध करने से पीड़ित, धर्मच्युत, तर्जित, ताडित-ताडनायुक्त एवं स्थान रहित, धन और धान्य से रहित करता हुआ महाबल नरेश के राज देय कर-महसूल को भी बारम्बार स्वयं ग्रहण करके समय व्यतीत कर रहा था। ___ उस विजय नामक चोर सेनापति की स्कंदश्री नाम की निर्दोष पांच इन्द्रियों वाले शरीर से युक्त परमसुंदरा भार्या थी। विजय चोर सेनापति का पुत्र स्कंदश्री का आत्मज अभग्नसेन नाम का एक लड़का था जो कि अन्यून एवं निर्दोष पांच इन्द्रियों से युक्त विज्ञात-विशेष ज्ञान रखने वाला : और बुद्धि आदि की परिपक्वता से युक्त युवावस्था को प्राप्त किये हुए था। विवेचन - प्रस्तुत सूत्र में विजयसेन चोर सेनापति के कृत्यों का वर्णन किया गया है। विजय अनाथों का नाथ और निराश्रितों का आश्रय बना। उसने अंगोपांगों से रहित व्यक्तियों तथा बहिष्कृत दीन-जनों की भरसक सहायता की, इसके अलावा स्वकार्य सिद्धि के लिए उसने चोरों, गांठ कतरों, परस्त्री लम्पटों, जुआरी तथा धूत्तों को आश्रय देने का यत्न किया। इससे उसका प्रभाव इतना बढ़ा कि वह प्रांत की जनता से राजदेय कर को भी स्वयं ग्रहण करने लगा तथा राजकीय प्रजा को पीड़ित, तर्जित और संत्रस्त करके उस पर अपनी धाक जमाने में सफल हुआ। सूत्रकार ने विजयसेन चोर सेनापति को कुटंक कहा है। इसका अभिप्राय यही है कि जिस तरह बांसों का वन प्रच्छन्न रहने वालों के लिए उपयुक्त एवं निरापद स्थान होता है वैसे ही विजयसेन चोर सेनापति परस्त्री लम्पट और ग्रंथि भेदक इत्यादि लोगों के लिये बड़ा सुरक्षित एवं निरापद स्थान था। तात्पर्य यह है कि वहां उन्हें किसी प्रकार की चिंता नहीं रहती थी। अपने को वहां वे निर्भय पाते थे। 'गामघाएहि' आदि पदों की व्याख्या इस प्रकार है - १. ग्रामघात - घात का अर्थ है नाश करना। ग्रामों-गांवों का घात, ग्रामघात कहलाता है। तात्पर्य यह है कि ग्रामीण लोगों की चल (जो वस्तुएं इधर उधर ले जाई जा सके जैसे चांदी, सोना, रुपया तथा वस्त्र आदि) और अचल (जो इधर उधर नहीं की जा सके जैसे मकान आदि) संपत्ति को विजयसेन चोर सेनापति हानि पहुंचाया करता था तथा वहां के लोगों को मोनसिक, वाचिक और कायिक सभी तरह की पीड़ा और व्यथा पहुंचाता था। २. नगरघात - ग्राम घात की तरह ही नगरों का घात-नाश नगरघात कहलाता है। ३. गो ग्रहण - यहां गो शब्द गाय आदि सभी पशुओं का परिचायक है। गो ग्रहण-गो का अपहरण (चुराना) गो ग्रहण कहलाता है। विजयसेन लोगों के पशुओं को चुरा कर ले जाता था। Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004199
Book TitleVipak Sutra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichand Banthiya, Parasmal Chandaliya
PublisherAkhil Bharatiya Sudharm Jain Sanskruti Rakshak Sangh
Publication Year2007
Total Pages362
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_vipakshrut
File Size7 MB
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