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________________ ७० विपाक सूत्र-प्रथम श्रुतस्कन्ध .......................................................... दरवाजे) थे और उस चोरपल्ली में परिचित व्यक्तियों का ही प्रवेश अथवा निर्गम हो सकता था। बहुत से चोरों की खोज लगाने वाले अथवा चोरों द्वारा अपहृत धनादि के वापिस लाने में उद्यत, मनुष्यों के द्वारा भी उसका नाश नहीं किया जा सकता था। ____ उस शालाटवी नामक चोरपल्ली में विजय नामक चोर सेनापति रहता था, जो कि महाअधर्मी यावत् उसके हाथ खून से रंगे रहते थे, उसका नाम अनेक नगरों में फैला हुआ था। वह शूरवीर, दृढप्रहारी, साहसी, शब्दवेधी और तलवार तथा लाठी का प्रथममल्ल-प्रधान योद्धा था। वह सेनापति उस चोरपल्ली में चोरों का आधिपत्य-स्वामित्व यावत् सेनापतित्व करता हुआ जीवन व्यतीत कर रहा था। ... विवेचन - पुरिमताल नगर की सीमा पर ईशानकोण में शालाटवी नाम की एक चोरपल्ली (चोरों के निवास करने का गुप्त स्थान) थी। चोरपल्ली में विजय नाम का चोर सेनापति रहता था। वह बड़े क्रूर विचारों का था, उसके हाथ सदैव रक्त से सने रहते थे उसके अत्याचारों से पीड़ित सारा प्रांत उसके नाम से कांप उठता था। वह निर्भय, बहादुर और सबका डट कर सामना करने वाला था। उसका प्रहार बड़ा तीव्र और अमोघ-निष्फल नहीं जाने वाला था। वह शब्द भेदी बाण के प्रयोग में निष्णात था। तलवार और लाठी के युद्ध में भी वह अग्रसर था। इसी कारण वह ५०० चोरों का मुखिया बना हुआ था। पांच सौ चोर उसके शासन में रहते थे। शालाटवी का निर्माण ही कुछ ऐसे ढंग का था कि जिसके बल से सर्व प्रकार से अपने को सुरक्षित रखे हुए था। --- इस प्रकार प्रस्तुत सूत्र में शालाटवी नामक चोरपल्ली का तथा चोर सेनापति विजय का विस्तृत वर्णन किया गया है। चोरसेनापति के कुकृत्य तए णं से विजए चोरसेणावई बहूणं चोराण य पारदारियाण य गंठिभेयाण य संधिच्छेयाण य खंडपट्टाण य अण्णेसिं च बहूणं छिण्ण-भिण्ण-बाहिराहियाणं कुडंगे यावि होत्था। तए णं से विजए चोरसेणावई पुरिमतालस्स णयरस्स उत्तरपुरथिमिल्लं जणवयं बहूहिं गामघाएहि य णगरघाएहि य गोग्गहणेहि य बंदिग्गहणेहि य पंथकोहि य खत्तखणणेहि य ओवीलेमाणे-ओवीलेमाणे विद्धंसेमाणे Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004199
Book TitleVipak Sutra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichand Banthiya, Parasmal Chandaliya
PublisherAkhil Bharatiya Sudharm Jain Sanskruti Rakshak Sangh
Publication Year2007
Total Pages362
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_vipakshrut
File Size7 MB
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