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द्वितीय अध्ययन - उज्झितक कुमार का आगामी भव वर्णन
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उपार्जन करके १२० वर्ष की परमायु का उपभोग कर कालमास में काल करके इस रत्नप्रभा नामक प्रथम नरक में नैरयिक रूप से उत्पन्न होगा। वहां से निकल कर सरीसृप-छाती के बल से चलने वाले सर्प आदि अथवा भुजा के बल से चलने वाले नकुल आदि प्राणियों की योनियों में जन्म लेगा। वहां से उसका संसार भ्रमण प्रथम अध्ययन में वर्णित मृगापुत्र के समान होगा। . यावत् पृथ्वीकाय में जन्म लेगा। वहां से निकल कर जंबूद्वीप नामक द्वीप में भारतवर्ष की चम्पानामक नगरी में महिष रूप से उत्पन्न होगा। वहां पर वह किसी अन्य समय गौष्ठिकों-मित्र मण्डली के द्वारा मारा जाने पर उसी चम्पा नगरी के श्रेष्ठि कुल में पुत्र रूप से उत्पन्न होगा। वहां पर बाल्यभाव का त्याग कर यौवन अवस्था को प्राप्त हुआ वह तथारूप-विशिष्ट संयमी स्थविरों के पास शंका आदि दोषों से रहित बोधि-लाभ को प्राप्त कर अनगार धर्म को अंगीकार करेगा। वहां से काल के समय काल करके सौधर्म नामक प्रथम देवलोक में उत्पन्न होगा। शेष जिस प्रकार मृगापुत्र के प्रथम अध्ययन में कहा है उसी प्रकार समझना यावत् कर्मों का अंत करेगा। निक्षेप-उपसंहार की कल्पना कर लेनी चाहिये। - विवेचन - प्रस्तुत अध्ययन में सूत्रकार ने उज्झितक कुमार के भवभ्रमण का वर्णन किया है। इस अध्ययन से स्पष्ट है कि शुभाशुभ कर्मों का चक्र कितना विकट और विलक्षण होता है। अशुभ कर्मों के उदय से जीव नरक तिर्यंच के असह्य दुःखों को सहन करता हुआ भवभ्रमण करता है। मांसाहार और व्यभिचार से जीव का कितना पतन होता है यह उज्झितक कुमार के उदाहरण से स्पष्ट है। अंत में उज्झितक कुमार का जीव धर्मश्रवण कर परम दुर्लभ सम्यक्त्व रत्न को प्राप्त करेगा और साधु धर्म अंगीकार करेगा। साधु धर्म का यथोचित पालन करता हुआ कर्मों का क्षय कर अंत में मोक्ष प्राप्त कर लेगा।
॥ द्वितीय अध्ययन समाप्त॥
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