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________________ [5] प्रतिपादन करने वाले इस सूत्र को विपाक श्रुत कहा है। इस प्रकार सभी के विचारों का सिंहावलोकन करने पर एक ही बात सम्पुष्ट होती है कि जीव के शुभाशुभ कर्म परिणाम को विपाक कहा है और इस सूत्र में चूंकि इसका प्रतिपादन हुआ है। इसलिए इसका नाम विपाक सूत्र रखा गया है। ___ स्थानांग सूत्र के दसवें स्थान पर विपाक सूत्र के जो दस अध्ययनों के नाम आये हैं, उनमें दूसरे श्रुतस्कन्ध के अध्ययनों के नाम नहीं है। नंदी सूत्र और समवायांग सूत्र में लो दोनों श्रुत स्कन्धों के अध्ययनों के नाम दिये ही नहीं गए है, मात्र परिचय ही दिया है। स्थानांग सूत्र में विपाक प्रथम श्रुतस्कन्ध के नाम इस प्रकार हैं - १. मृगापुत्र २. गोत्रांस ३. अण्ड ४. शटक ५. बाह्मण ६. नंदीषेण ७. शौरिक ८. उदुम्बर ६. सहस्रोद्दाह आभरक १०. कुमार लिच्छई। ' जबकि उपलब्ध विपाक में प्रथम श्रुतस्कन्ध के नाम इस प्रकार हैं - १. मृगापुत्र २. उज्झितक ३. अभग्नसेन ४. शटक ५. वृहस्पतिदत्त ८. नंदीवर्द्धन ७. उम्बरदत्ता ८. शौरिकदत्त ६. देवदत्ता १०. अंजू। . स्थानांग सूत्र में आये हुए एवं वर्तमान विपाक सूत्र में जो नाम उपलब्ध हैं उनमें कुछ अन्तर है। इसका कारण है कि विपाक सूत्र में कई अध्ययनों के नाम व्यक्ति परक हैं तो कई नाम वस्तु परक यानी घटना परक, जबकि स्थानांग में जो नाम आये हैं वे केवल व्यक्तिपरक हैं। दो अध्ययनों में क्रम भेद भी है। स्थानांग में जो आठवां अध्ययन है वह विपाक में सातवां अध्ययन है और स्थानांग का सातवां अध्ययन है वह विपाक का आठवां अध्ययन है। इस प्रकार अध्ययनों के नामों में भिन्नता होने पर भी विषय सामग्री दोनों की समान है। - संसारी जीव जो विविध प्रकार के कर्मों का बन्ध करते हैं उन्हें विपाक की दृष्टि से दो भागों में विभक्त किया गया है। शुभ और अशुभ, पुण्य और पाप। इन दो भेदों में सभी कर्म बंध का समावेश हो जाता है। इन शुभाशुभ कर्मों के कारण ही जीव संसार में परिभ्रमण करता है। आचारांग सूत्र अ० ३ उ० १ में एक छोटा सा सूत्र आया है 'कम्मुणा उवाही जायई' अर्थात् कर्मों से ही जन्म, मरण, वृद्धत्व, शारीरिक दुःख, मानसिक दुःख, संयोग, वियोग, Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004199
Book TitleVipak Sutra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichand Banthiya, Parasmal Chandaliya
PublisherAkhil Bharatiya Sudharm Jain Sanskruti Rakshak Sangh
Publication Year2007
Total Pages362
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_vipakshrut
File Size7 MB
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