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________________ विपाक सूत्र- प्रथम श्रुतस्कन्ध विचार उत्पन्न हुए - ‘अहो! यह बालक पूर्व के प्राचीन ( पूर्वजन्मों के) दुष्वीर्ण और दुष्प्रतिक्रान्त अशुभ पापमय किये हुए कर्मों के पापरूप फल वृत्ति विशेष का पाप रूप फल का अनुभव करता हुआ समय व्यतीत कर रहा है। नरक और नारकी तो मैंने नहीं देखे किंतु यह पुरुषमृगापुत्र नरक के प्रतिरूप - सदृश प्रत्यक्ष रूप से वेदना का अनुभव कर रहा है। इस प्रकार विचार करते हुए भगवान् गौतमस्वामी ने मृगादेवी से पूछ कर कि अब मैं जा रहा हूं, उसके घर से निकले और निकल कर मृगाग्राम के मध्य मध्य होते हुए जहां भगवान् महावीर स्वामी विराजमान थे वहां पधारे। पधार कर भगवान् महावीर स्वामी को आदक्षिणा प्रदक्षिणा करके वंदन - नमस्कार किया और वंदना नमस्कार करके इस प्रकार बोले- 'हे भगवन्! आपकी आज्ञा प्राप्त करके मैं मृगाग्राम नगर के मध्य भाग में होता हुआ जहां मृगादेवी का घर था वहां पहुँचा ।' मुझे आ देखकर मृगादेवी अत्यंत हृष्टतुष्ट हुई यावत् पीव और रक्त शोणित युक्त आहार करते हुए मृगापुत्र को देख कर मेरे मन में यह विचार उत्पन्न हुआ- 'अरे! यह बालक पूर्वजन्मों के महान् पाप कर्मों का फल भोगता हुआ समय व्यतीत कर रहा है।' पूर्वभव पृच्छा से णं भंते! पुरिसे पुव्वभवे के आसि ? किं णामए वा किं गोए वा कयरंसि गामंसि वा यरंसि वा? किं वा दच्चा किं वा भोच्चा किं वा समायरिता केसिं वा पुरा जाव विहरड़ ? गोयमाइ ! समणे भगवं महावीरे भगवं गोयमं एवं वयासी एवं खलु गोयमा ! तेणं कालेणं तेणं समएणं इहेव जंबुद्दीवे दीवे भारहे वासे सयदुवारे णामं णयरे होत्था रिद्धत्थिमियसमिद्धे वण्णओ ॥ २२ ॥ २० 444 आचरण कठिन शब्दार्थ - पुव्वभवे - पूर्व भव में, के आसि - कौन था? किं-क्या, णामएनाम वाला, गोए - गोत्र वाला, दच्चा दे कर, भोच्चा - भोग कर, समाजरित्ता कर, पुरा - पूर्व, रिद्धत्थिमियसमिद्धे - रिद्धस्तिमित समृद्धः - रिद्ध अर्थात् सम्पन्न, स्तिमित अर्थात् स्व चक्र और परचक्र के भय से विमुक्त, समृद्ध अर्थात् उत्तरोत्तर बढ़ते हुए धन धान्यादि से परिपूर्ण । भावार्थ Jain Education International - - हे भगवन् ! वह पुरुष (मृगापुत्र) पूर्व भव में क्या था? किस नाम का था? For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004199
Book TitleVipak Sutra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichand Banthiya, Parasmal Chandaliya
PublisherAkhil Bharatiya Sudharm Jain Sanskruti Rakshak Sangh
Publication Year2007
Total Pages362
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_vipakshrut
File Size7 MB
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