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________________ निवेदन जैन शास्त्रों का विषय निरूपण सर्वांग पूर्ण होने का कारण है इसके मूल उपदेष्टा सर्वज्ञ सर्वदर्शी तीर्थंकर भगवन्त हैं, जो घाती कर्मों का क्षय होने पर यानी पूर्णता प्राप्त होने पर ही उपदेश फरमाते हैं। जैन दर्शन में जड़-चेतन, आत्मा-परमात्मा, सुख-दुःख, संसार-मोक्ष, आस्रवसंवर कर्मबन्ध-कर्मक्षय इत्यादि विषयों का जितना सूक्ष्म गंभीर और सुस्पष्ट चिंतन विवेचन (मीमांसा) है उसका अंशमात्र भी अन्य दर्शनों में नहीं मिलता है। इसका कारण तीर्थंकर प्रभु की वीतरागता, सर्वज्ञता है। जैन दर्शन के आगम भूले-भटके भव्यजनों के मार्गदर्शक बोर्ड के तुल्य हैं, जो उन्हें उन्मार्ग से हटाकर सन्मार्ग की ओर अग्रसर कराने वाले हैं। . अर्वाचीन वर्गीकरण के अनुसार वर्तमान में उपलब्ध बत्तीस आगम चार भागों में विभक्त है- (१) ग्यारह अंग सूत्र (२) बारह उपांग सूत्र (३) चार मूल सूत्र (४) चार छेद सूत्र और बत्तीसवां आवश्यक सूत्र। इनमें प्रस्तुत विपाक सूत्र ग्यारहवां अंग सूत्र है। कर्म सिद्धान्त जैनदर्शन का प्रमुख सिद्धान्त है। जैन दर्शन भगवान् को कर्ता नहीं मानता, स्वयं व्यक्ति को ही कर्ता भोक्ता मानता है। इस सिद्धान्त का प्रस्तुत आगम में कथानकों के माध्यम से प्रतिपादन किया गया है ताकि सामान्य से सामान्य बुद्धिजीवी भी सरलता से इस विषय को समझ सके। . नंदी सूत्र में विपाक सूत्र के परिचय के बारे में निम्न पाठ है प्रश्न - विपाक श्रुत किसे कहते हैं? ... उत्तर - विपाक का अर्थ है - शुभ-अशुभ कर्मों की स्थिति पकने पर उनका उदय में आया हुआ परिणाम (फल)। जिस श्रुत में ऐसा परिणाम बताया हो, उसे 'विपाकश्रुत' कहते हैं। विपाकश्रुत में सुकृत और दुष्कृत कों के फलस्वरूप होने वाला परिणाम कहा जाता है। इसमें दस दुःख विपाक हैं और दस सुखविपाक हैं। से किं तं दुहविवागा? दुहविवागेसु णं दुहविवागाणं णगराई, उज्जाणाई, वणसंडाई, चेइयाइं, समोसरणाई, रायाणो, अम्मापियरो, धम्मायरिया, धम्मकहाओ, इहलोइयपरलोइया इविविसेसा णिरयगमणाई संसारभवपवंचा, दुहपरंपराओ, दुकुलपच्चायाइओ, दुल्लहबोहियत्तं आपविजइ। से तं दुहविवागा। Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004199
Book TitleVipak Sutra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichand Banthiya, Parasmal Chandaliya
PublisherAkhil Bharatiya Sudharm Jain Sanskruti Rakshak Sangh
Publication Year2007
Total Pages362
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_vipakshrut
File Size7 MB
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