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प्रथम अध्ययन - मृगापुत्र को ही देखने की भावना
तणं से भगवं गोयमे मियादेविं एवं वयासी- अहं णं देवाणुप्पिए! तव पुत्तं
पासिउं हव्वमागए ॥१५॥
कठिन शब्दार्थ
अब्भणुण्णाए समा
अभ्यनुज्ञात होकर अर्थात् आपकी आज्ञा प्राप्त कर, पात्तिए - देखना, अतुरियं अशीघ्रता से, सोहेमाणे - ईर्यासमिति पूर्वक गमन करते हुए, किमागमणप्पओयणं - आपके पधारने का क्या प्रयोजन है? संदिसंतु - बतलावें । भावार्थ - तदनन्तर भगवान् गौतमस्वामी ने श्रमण भगवान् महावीर स्वामी को वंदना नमस्कार किया, वंदना नमस्कार करके इस प्रकार निवेदन किया आज्ञा प्राप्त हो तो मैं मृगापुत्र बालक को देखना चाहता हूँ।'
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'हे भगवन्! यदि आपकी
भगवान् ने फरमाया - 'हे गौतम! जैसा तुम्हें सुख हो वैसा करो।'
तब श्रमण भगवान् महावीर स्वामी के द्वारा आज्ञा प्राप्त कर गौतम स्वामी प्रसन्न एवं संतुष्ट हुए और भगवान् महावीर स्वामी के पास से निकले, निकल कर शीघ्रता रहित यावत् ईर्यासमिति पूर्वक गमन करते हुए जहां मृगाग्राम नगर था वहां आये और मृगाग्राम नगर के मध्य में से होते हुए जहां मृगादेवी का घर था वहां आये ।
तदनन्तर उस मृगादेवी ने भगवान् गौतमस्वामी को आते हुए देखा और देख कर हष्टतुष्ट हुई इस प्रकार कहा 'हे भगवन्! आपके यहां पधारने का क्या प्रयोजन है? कृपा कर बतलावें।' तब गौतमस्वामी ने कहा- 'हे देवानुप्रिये! मैं तुम्हारे पुत्र को देखने आया हूँ।'
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मृगापुत्र को ही देखने की भावना
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तए णं सा मियादेवी मियापुत्तस्स दारयस्स अणुमग्गजायए चत्तारि पुत्ते सव्वालंकारविभूसिए करेइ करेत्ता भगवओ गोयमस्स पाएसु पाडेइ पाडित्ता एवं वयासी - एए णं भंते! मम पुत्ते पासह।
तए णं से भगवं गोयमे मियं देविं एवं वयासी-णो खलु देवाणुप्पिए! अहं एए तव पुत्ते पासिउं हव्वमागए, तत्थ णं जे से तव जेट्टे पुत्ते मियापुत्ते दारए जाइअंधे जाइअंधारूवे जं णं तुमं रहस्सियंसि भूमिघरंसि रहस्सिएणं भत्तपाणेणं पडिजागरमाणी- पडिजागरमाणी विहरसि, तं णं अहं पासिउं हव्वमागए ॥ १६ ॥
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