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प्रथम अध्ययन - गौतम स्वामी की जिज्ञासा
कठिन शब्दार्थ - इंदमहेड़ धम्ममाइक्खड़ - धर्मोपदेश करते हैं।
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इन्द्र महोत्सव, णिग्गच्छइ - नागरिक जा रहे हैं,
भावार्थ तब वह जन्मान्ध पुरुष नगर कोलाहलमय वातावरण को जान कर उस पुरुष के प्रति इस प्रकार बोला- 'हे देवानुप्रिय ! क्या आज मृगाग्राम नगर में इन्द्र महोत्सव है जिसके कारण जनता नगर से बाहर जा रही है ? '
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उस पुरुष ने कहा - 'हे देवानुप्रिय ! आज नगर में इन्द्र महोत्सव नहीं है किंतु श्रमण भगवान् महावीर स्वामी पधारे हैं वहां ये सब लोग दर्शनार्थ जा रहे हैं।' तब उस जन्मांध पुरुष ने कहा - 'चलो हम भी चलें और चल कर भगवान् की पर्युपासना करें।'
तदनन्तर दण्ड के द्वारा आगे को ले जाया जाता हुआ वह जन्मांध पुरुष जहां पर श्रमण भगवान् महावीर स्वामी विराजमान थे वहां पर आया। आकर वह तीन बार दक्षिण ओर से प्रारंभ करके प्रदक्षिणा करता है। प्रदक्षिणा करके वंदना नमस्कार किया तत्पश्चात् वह भगवान् की पर्युपासना में तत्पर हुआ। तदनन्तर श्रमण भगवान् महावीर स्वामी ने विजय राजा और परिषद् को धर्मोपदेश दिया । धर्मोपदेश को सुन कर विजय राजा तथा परिषद् चली गई ।
गौतमस्वामी की जिज्ञासा
तेणं कालेणं तेणं समएणं समणस्स भगवओ महावीरस्स जेट्टे अंतेवासी इंदभूई णामं अणगारे जाव विहरइ । तए णं से भगवं गोयमे तं जाइअंधपुरिसं पासइ पासित्ता जायसड्डे जाव एवं वयासी-अत्थि णं भंते! केइ पुरिसे जाइअंधे जाइअंधारूचे? हंता अत्थि, कहि णं भंते! से पुरिसे जाइअंधे जाइअंधारूवे ? एवं खलु गोयमा! इहेव मियगामे णबरे विजयस्स खत्तियस्स पुत्ते मियादेवीए अत्तए मियापुत्ते णामं दारए नाइअंधे जाइअंधारूबे, णत्थि णं तस्स दारगस्स जाव आगिइमेत्ते, तए णं सा मियादेवी जाव पडिजागरमाणी पडिजागरमाणी विहरंइ ॥ १४ ॥
कठिन शब्दार्थ - जाइअंधारूवे - जन्मान्ध रूप ।
भावार्थ - उस काल तथा उस समय में श्रमण भगवान् महावीर स्वामी के ज्येष्ठ शिष्य इन्द्रभूति नामक अनगार भी वहां विराजमान थे। भगवान् गौतमस्वामी ने उस अंधे पुरुष को
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