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________________ .................... विपाक सूत्र-द्वितीय श्रुतस्कन्ध पालियाहि - भली भांति पालन करो, जियमझेवसाहि - कुलाचार को पालने वाले, कुटुम्बीजनों के बीच रहो, सत्तुपक्खं - शत्रुओं को, मित्तपक्खं - मित्र के समान। ____ भावार्थ - जब सुबाहुकुमार के माता-पिता विषयों के अनुकूल और प्रतिकूल अनेक प्रकार के वचनों से सुबाहुकुमार को अपने ध्येय से विचलित न कर सके तब निराश हो कर उन्होंने सुबाहुकुमार से कहा कि हे पुत्र! कम से कम एक दिन के लिए हम तुम्हें राज्य लक्ष्मी भोगते हुए राज्यसिंहासन पर बैठा हुआ देखना चाहते हैं। माता-पिता के उपरोक्त वचनों को सुन कर सुबाहुकुमार मौन रहा। “मौनं सम्मति लक्षणं" अर्थात् मौन रह जाना स्वीकृति का चिह्न है इस न्याय के अनुसार राजगद्दी के लिए सुबाहुकुमार की स्वीकृति समझ कर राजा अदीनशत्रु ने सेवकों को बुलाया। सेवकों को बुला कर उनसे कहा कि - महान् कार्यों में काम आने वाली, बहुमूल्य और महापुरुषों के योग्य राज्याभिषेक की सामग्री शीघ्र ही इकट्ठी करो। राजा की आज्ञा पाकर सेवकों ने तत्काल राजा की आज्ञानुसार सब सामग्री इकट्ठी कर दी। इसके बाद सेनापति, कोटवाल आदि समस्त राज्य कर्मचारियों से घिरे हुए राजा अदीनशत्रु ने १०८ सोने के, १०८ चांदी के, १०८ सोने चांदी के, १०८ मणियों के, १०८ मणियों से जड़े हुए सोने के, १०८ मणियों से जड़े हुए चांदी के, १०८ मणियों से जड़े हुए सोने चांदी के और १०८ मिट्टी के कलशों में भरे हुए सब प्रकार के जलों से, सब प्रकार की मिट्टी से, सब प्रकार के फूल, सुगंधित पदार्थ, माला, औषधि और सरसों आदि से तथा समस्त आभूषण आदि ऋद्धि से कांति युक्त पदार्थों से और सेना द्वारा दुंदुभि आदि वादिन्त्रों के गंभीर शब्दों से सुबाहुकुमार का राज्याभिषेक किया। फिर हाथ जोड़ कर सब लोग इस प्रकार कहने लगे कि हे आनंद के देने वाले! हे कल्याण के देने वाले! आपकी जय हो! जय हो! आप नहीं जीते हुए शत्रुओं को जीतो और जीते हुओं का मित्र के समान पालन करो। जिस प्रकार भरत चक्रवर्ती ने मनुष्यों का पालन किया था उसी प्रकार आप भी प्रजा का पालन करो। इस हस्तिशीर्ष नगर का तथा दूसरे बहुत से ग्राम, आकर, नगर यावत् सन्निवेशों का आधिपत्य करते हुए आनंद से रहो। इतना कह कर उन्होंने फिर जय जय शब्द किया। संयमोपकरण की मांग तए णं से सुबाहुकुमारे राया जाए महया जाव विहरइ। तएणं तस्स सुबाहुस्स रण्णो अम्मापियरो एवं वयासी-भण जाया! किं दलयामो किं पयच्छामो, किं Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004199
Book TitleVipak Sutra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichand Banthiya, Parasmal Chandaliya
PublisherAkhil Bharatiya Sudharm Jain Sanskruti Rakshak Sangh
Publication Year2007
Total Pages362
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_vipakshrut
File Size7 MB
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