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________________ प्रथम अध्ययन माता-पिता और पुत्र संवाद सुहसमुचिए - सुख में बढ़े हो, णोदुहसमुचिए - दुःख नहीं देखा है, वाइयपत्तियसिंभिय सण्णिवाइय विविहे रोगायंके वात, पित्त, कफ संबंधी विविध रोग और सन्निपात आदि आतंक, गामकंटए - इन्द्रियों के प्रतिकूल, उच्चावए - बड़े छोटे रोग, उदिण्णे - प्राप्त होने पर, सम्म समभाव पूर्वक, अहियासित्तए - सहन करना । - Jain Education International भावार्थ जब सुबाहुकुमार के माता-पिता विषयों के अनुकूल वचनों द्वारा यानी विषयों के प्रलोभन द्वारा सुबाहुकुमार को अपने ध्येय से विचलित न कर सके तब वे विषयों के प्रतिकूल वचनों द्वारा तथा संयम में आने वाले कष्टों को बताते हुए इस प्रकार कहने लगे कि हे पुत्र! ये निर्ग्रन्थ प्रवचन सत्य, प्रधान, सर्वज्ञ भाषित, अनेकान्तात्मक शुद्ध, माया, निदान और मिथ्यात्व इन तीन शल्यों से रहित, सिद्धि का मार्ग, मुक्ति का मार्ग, निर्याणमार्ग यानी जन्म ! मरण के चक्र से निकलने का मार्ग, निर्वाण का मार्ग और सब दुःखों का नाश करने का उपाय है। जिस प्रकार मार्ग में चलता हुआ सांप सामने एकाग्रदृष्टि रखता है उसी प्रकार निर्ग्रन्थ प्रवचनों का पालन करने के लिए इनमें ही एकाग्र दृष्टि रखनी पड़ती है। ये छुरे की तरह एक धार वाले हैं. क्योंकि निर्ग्रन्थ प्रवचनों का पालन करने में किसी प्रकार की छूट नहीं है, जिस प्रकार लोह के चने चबाना, बालू रेत के ग्रास को निगलना, गंगा नदी के पूर के सामने जाना, भुजाओं से तैर कर समुद्र को पार करना, तलवार की तीखी धार पर आक्रमण करना, पत्थर की भारी शिला को उठाना और तलवार की तीक्ष्ण धार पर चलना, ये सब कार्य कठिन हैं उसी प्रकार संयम का पालन करना भी महाकठिन है क्योंकि निर्ग्रन्थ साधुओं को आधाकर्मी, औद्देशिक, उनके निमित्त खरीद कर लाया हुआ आहार आदि ग्रहण करने योग्य नहीं है। इसी प्रकार दीन अनाथों के लिए बनाया हुआ और दान शाला में मंगते भिखारियों को देने के लिए बनाया हुआ आहार भी निर्ग्रन्थ साधुओं को ग्रहण करना नहीं कल्पता है एवं कंद, मूल, फल, बीज आदि का सचित्त भोजन करना भी नहीं कल्पता है। सर्दी, गर्मी, भूख, प्यास आदि बाईस परीषहों को समभाव पूर्वक सहन करना होता है । हे पुत्र ! तेरा लालन पालन सुख में हुआ है। तूने कभी दुःख नहीं देखा है। इसलिए संयम में आने वाले कष्टों को तू सहन नहीं कर सकेगा। इसलिए हे पुत्र! अभी इस तरुण अवस्था में मनुष्य संबंधी कामभोगो को भोगो । वृद्धावस्था आने पर क् भोगी होकर फिर श्रमण भगवान् महावीर स्वामी के पास दीक्षा ले लेना । तए णं से सुबाहुकुमारे अम्मापिऊहिं एवं वुत्ते समाणे अम्मापियरं एवं ३०५ *❖❖ For Personal & Private Use Only · www.jainelibrary.org
SR No.004199
Book TitleVipak Sutra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichand Banthiya, Parasmal Chandaliya
PublisherAkhil Bharatiya Sudharm Jain Sanskruti Rakshak Sangh
Publication Year2007
Total Pages362
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_vipakshrut
File Size7 MB
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