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________________ प्रथम अध्ययन - श्रावक व्रतों का पालन मोक्ष के स्वरूप को जानने में कुशल हुआ। वह देव, असुरकुमार, नागकुमार सुवर्णकुमार, यक्ष, राक्षस, किन्नर किंपुरुष, गरुड़, गंधर्व, महोरग आदि देवों के समूह की सहायता न लेने वाला था। कोई भी उसको निर्ग्रन्थ प्रवचन से विचलित नहीं कर सकता था । उसको निर्ग्रन्थ प्रवचनों में शंका नहीं थी, अन्य दर्शनों में आकांक्षा नहीं थी, धार्मिक क्रियाओं के फल में उसे संदेह नहीं था। उसने जीवादि तत्त्वों के अर्थ को प्राप्त किया था, उनके अर्थ को जाना था, उनमें उत्पन्न संशय को पूछा था, पूछ कर निर्णय किया था और उनका तात्पर्य जान कर हृदय में धारण किया था। उसकी हड्डियाँ और मज्जा निर्ग्रन्थ प्रवचन के अनुराग से अनुरक्त थी । आयुष्मन् ! वह सुबाहुकुमार ऐसा विचार किया करता था कि यह निर्ग्रन्थ प्रवचन ही अर्थ (सार) है, यह निर्ग्रन्थ प्रवचन ही परमार्थ है और शेष सब अनर्थ है। उसके किवाड़ों का भोगल अलग रहता था। दान देने के लिए उसके घर के द्वार सदा खुले रहते थे। यदि वह किसी के घर में जाता और यहाँ तक कि वह राजा के अन्तःपुर में भी चला जाता तो भी उस पर किसी प्रकार का अविश्वास नहीं किया जाता था। वह शीलव्रत, गुणव्रत, विरमण व्रत, पोरिसी आदि पच्चक्खाण और पौषध उपवास करता था । चतुर्दशी, अष्टमी, अमावस्या और पूर्णिमा इन तिथियों के दिन वह प्रतिपूर्ण पौषध का सम्यक् प्रकार से पालन करता था । श्रमण निर्ग्रन्थों को प्रासुक और एषणीय अशन, पान, खादिम, स्वादिम यह चारों प्रकार का आहार तथा वस्त्र, पात्र, कम्बल, रजोहरण और पडिहारी रूप से बाजोठ, पाटिया, शय्या, संथारा तथा औषध और भेषज आदि से मुनियों को प्रतिलाभित करता हुआ अर्थात् मुनियों को उपरोक्त चौदह प्रकार का दान देता हुआ और स्वीकार किये हुए तप नियम आदि धार्मिक क्रियाओं से अपनी आत्मा को भ करता हुआ आत्म-चिंतन में तल्लीन रहता था । विवेचन वह सुमुख गाथापति बहुत वर्षों तक जीवित रह कर यथासमय काल करके इस हस्तिशीर्ष नगर में अदीनशत्रु राजा के यहाँ धारिणी रानी कि कुक्षि से पुत्र रूप में उत्पन्न हुआ। इस प्रकार सुबाहुकुमार को यह मनुष्य ऋद्धि प्राप्त हुई। गौतम स्वामी द्वारा पूछने पर भगवान् ने फरमाया कि सुबाहुकुमार दीक्षा लेने में समर्थ है। तत्पश्चात् सुबाहुकुमार श्रावक बन गया। उसे जीवादि नव तत्त्वों का भली प्रकार ज्ञान था । उसने उनके अर्थों को जान कर हृदय में धारण किया था । निर्ग्रन्थ प्रवचनों में वह दृढ़ था। उन में उसको शंका, कांक्षा आदि नहीं थी । देवता भी उसको श्रद्धा से विचलित नहीं कर सकते थे । वह सब का विश्वास पात्र था। वह श्रावक के बारह व्रतों का सम्यक् प्रकार से पालन करता हुआ आत्मचिंतन में तल्लीन रहता था। Jain Education International - For Personal & Private Use Only २६१ www.jainelibrary.org
SR No.004199
Book TitleVipak Sutra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichand Banthiya, Parasmal Chandaliya
PublisherAkhil Bharatiya Sudharm Jain Sanskruti Rakshak Sangh
Publication Year2007
Total Pages362
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_vipakshrut
File Size7 MB
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