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________________ प्रथम अध्ययन - गौतम स्वामी की जिज्ञासा २८३ मिली, पत्ता - प्राप्त हुई, अभिसमण्णागया - सामने आई, दच्चा - दान दिया, भोच्चा - भोजन किया, समायरित्ता-- शुभ आचरण किया, तहारूवस्स - तथा रूप के, आयरियं सुवयणं - आर्य सुवचन को। भावार्थ - उस काल उस समय में श्रमण भगवान् महावीर स्वामी के ज्येष्ठ यानी सबसे बड़े प्रधान शिष्य इन्द्रभूति नाम के अनगार थे। उनका गोत्र गौतम था। उनका शरीर सात हाथ ऊंचा था। उनका शरीर समचतुरस्र संस्थान और वज्रऋषभ नाराच संहनन से युक्त था। उनका शरीर कसौटी पर घिसे हुए सोने के समान गोरा था। वे उग्र तपस्वी यानी उत्कृष्ट तप करने वाले, दीप्त तपस्वी यानी अग्नि के समान कर्म रूपी वन को जलाने वाला तप करने वाले, तप्त तपस्वी यानी कर्मों को तपाने वाली तपस्या करने वाले और महातपस्वी यानी फल की इच्छा न करते हुए निष्काम तपस्या करने वाले, उदार और घोर यानी कर्म रूपी शत्रुओं को जीतने में शूरवीर थे वे महान् गुणशाली थे। घोर तपस्वी और घोर ब्रह्मचारी थे। वे शरीर की सेवा शुश्रूषा से रहित थे। उन्होंने अपनी विपुल तेजोलेश्या को संक्षिप्त कर रखी थी यानी वे तेजोलेश्या का प्रयोग नहीं करते थे, चौदह पूर्व के ज्ञाता थे। मतिज्ञान, श्रुतज्ञान, अवधिज्ञान और मनःपर्यव इन चार ज्ञानों के धारक थे। सब अक्षरों के उदात्त आदि भेदों को जानने वाले थे। वे इन्द्रभूति अनगार श्रमण भगवान् महावीर स्वामी के न तो अधिक दूर और न अधिक नजदीक बैठे हुए थे। घुटने ऊपर की ओर तथा शिर नीचे किये हुए ध्यान रूपी कोठे में स्थिर थे। संयम और तप के द्वारा आत्मा की भावना करते हुए आत्मगुणों में विचरण कर रहे थे। .. इसके पश्चात् उन भगवान् गौतम स्वामी को तत्त्वों में श्रद्धा होने से जिज्ञासा रूप संशय उत्पन्न हुआ। इसी कारण उन्हें कौतुहल पैदा हुआ। तत्त्वों में सम्यक् प्रकार श्रद्धा होने से सम्यक् जिज्ञासा रूप संशय उत्पन्न हुआ, इसी कारण सम्यक् कौतुहल पैदा हुआ। उन्हें तत्त्वों में भली प्रकार श्रद्धा थी इसीलिए भली प्रकार जिज्ञासा रूप संशय उत्पन्न हुआ और इसी कारण भली प्रकार कौतुहल उत्पन्न हुआ इसलिए अपने स्थान से उठे, उठ कर जहाँ पर श्रमण भगवान् महावीर स्वामी विराजमान थे वहाँ पर आये, आकर भगवान् महावीर स्वामी की आदक्षिण प्रदक्षिणा करके तीन बार वंदना नमस्कार किया। वंदना नमस्कार करके न तो अधिक नजदीक और न अधिक दूर किंतु यथोचित स्थान पर सामने उनकी शुश्रूषा करते हुए और नमस्कार करते हुए विनयपूर्वक दोनों हाथ जोड़ कर सेवा करते हुए इस प्रकार बोले कि अहो भगवन्! यह सुबाहुकुमार इष्ट, इष्ट रूप वाला, कांत यानी सुंदर कान्तरूप. वाला, प्रिय, प्रिय रूप वाला, Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004199
Book TitleVipak Sutra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichand Banthiya, Parasmal Chandaliya
PublisherAkhil Bharatiya Sudharm Jain Sanskruti Rakshak Sangh
Publication Year2007
Total Pages362
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_vipakshrut
File Size7 MB
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