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________________ विपाक सूत्र - प्रथम श्रुतस्कन्ध सुधर्मा स्वामी का पदार्पण तेणं कालेणं तेणं समएणं समणस्स भगवओ महावीरस्स अंतेवासी अज्जसुहम्मे णामं अणगारे जाइसंपण्णे वण्णओ चउद्दसपुवी चउणाणोवगए पंचहि अणगारसहिं सद्धिं संपरिवुडे पुव्वाणुपुव्विं जाव जेणेव पुण्णभद्दे चेइए अहापडिरूवं जाव विहरइ, परिसा णिग्गया, धम्मं सोच्चा णिसम्म, जामेव दिसिं पाउब्भूया तामेव दिसिं पडिगया ॥ २ ॥ ४ कठिन शब्दार्थ - अंतेवासी - शिष्य, जाइसंपण्णे - जातिसम्पन्न- जिसका मातृ-पक्ष विशुद्ध हो, चउद्दसपुव्वी - चौदह पूर्वी के ज्ञाता, चउणाणोवगए - चार ज्ञानों के धारक, अज्जसुहम्मे - आर्य सुधर्मा संपरिवुडे सम्परिवृत्त - घिरे हुए, पुव्वाणुपुव्विं - पूर्वानुपूर्वी सेक्रमशः, चरमाणे - विहार करते हुए, अहापडिरूवं - यथाप्रतिरूप - अनगारोचित ( साधु वृत्ति के अनुरूप) अवग्रह ग्रहण करके, परिसा परिषद्- जनता, णिग्गया- निकली, धम्मं - धर्मकथा, सोच्चा सुनकर, णिसम्म - हृदय में धारण कर, पाउब्भूया - आई थी, दिसिं - दिशा में, पडिगया- लौट गयी चली गयी। - - भावार्थ उस काल और उस समय में श्रमण भगवान् महावीर स्वामी के शिष्य चतुर्दश पूर्व के ज्ञाता, चार ज्ञानों के धारक, जातिसंपन्न आर्य सुधर्मा स्वामी पांच सौ अनगारों से घिरे हुए क्रमशः विहार करते हुए यावत् जहां चंपानगरी का पूर्णभद्र उद्यान था वहां पधारे, पधार कर साधुवृत्ति के अनुरूप अवग्रह स्थान ग्रहण करके यावत् तप संयम से अपनी आत्मा को हुए विचरने लगे। परिषद् (जनता) निकली। धर्मकथा सुन करके, हृदय में धारण करके जिस दिशा से आई थी, उसी दिशा में लौट गयी। विवेचन - आर्य सुधर्मा स्वामी का वर्णन करते हुए सूत्रकार ने 'जाइसंपण्णे' के बाद प्रयुक्त 'वण्णओ' पद से ज्ञाताधर्मकथांग सूत्रगत निम्न पाठ का ग्रहण किया है - "कुलसंपण्णे बल - रूव - विणय - णाण- दंसण- चरित्त - लाघव संपण्णे, ओयंसी, तेयंसी, वच्छंसी, जसंसी, जियकोहे, जियमाणे, जियमाए, जियलोहे, जियइंदिए, जियणिद्दे, जियपरिसहे, जीवियासमरणभयविप्पमुक्के तव्वप्पहाणे, गुणप्पहाणे एवं करण-चरण- णिग्गहणिच्छय-अज्जव-मद्दव - लाघव - खंति - गुत्ति-मुत्ति - विज्जामंत - बंभवय-जय-नियम-सच्च Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004199
Book TitleVipak Sutra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichand Banthiya, Parasmal Chandaliya
PublisherAkhil Bharatiya Sudharm Jain Sanskruti Rakshak Sangh
Publication Year2007
Total Pages362
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_vipakshrut
File Size7 MB
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