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________________ २२० विपाक सूत्र-द्वितीय श्रुतस्कन्ध .............................................. ............ ___भावार्थ - हे देवि! तुमने उदार स्वप्न देखा है, दे देवि! तुमने कल्याणकारी यावत् सश्रीक यानी लक्ष्मी सहित स्वप्न देखा है। हे देवि! तुमने आरोग्य, संतोष, दीर्घ आयु, कल्याण और मंगल करने वाला स्वप्न देखा है। हे देवानुप्रिये! इससे तुझे अर्थलाभ होगा, भोगलाभ होगा, पुत्रलाभ होगा, राज्य लाभ होगा। इस प्रकार निश्चय ही हे देवानुप्रिये! पूरे नौ मास और साढे सात दिन बीत जाने पर हमारे कुल की ध्वजा के समान, कुलदीपक, कुल में पर्वत के समान, कुल के मुकुट, कुलतिलक, कुल की कीर्ति बढ़ाने वाले, कुल की समृद्धि करने वाले, कुल के आधार, कुल को आश्रय देने में वृक्ष के समान, कुल की वृद्धि करने वाले, सुकुमार अर्थात् कोमल हाथ पैर वाले, किसी भी प्रकार की हीनता रहित सम्पूर्ण पांचों इन्द्रियों से पूर्ण शरीर वाले यावत् चन्द्रमा के समान सौम्य आकृति वाले कांत, देखने में प्रिय, सुरूप, देवकुमार के समान प्रभा वाले बालक को तुम जन्म दोगी। वह बालक बाल्यावस्था का त्याग करने पर बहत्तर कलाओं का विशेष जानकार होगा। यौवन अवस्था को प्राप्त होने पर वह शूरवीर और पराक्रमी होगा। विस्तीर्ण और विपुल सेना तथा वाहन यानी हाथी घोड़े आदि सवारी वाला राज्यपति राजा यानी राजराजेश्वर होगा। इसलिए हे देवि! तुमने उदार स्वप्न देखा है, तुमने आरोग्य संतोष यावत् मंगल करने वाला स्वप्न देखा है। इस प्रकार उन इष्टकारी यावत् प्रियकारी वचनों से राजा ने दो तीन बार धारिणी रानी को कहा। विवेचन - राजा अदीनशत्रु ने धारिणी रानी से कहा - हे देवानुप्रिये! तुमने बड़ा अच्छा शुभ स्वप्न देखा है। तुम एक ऐसे पुत्र को जन्म दोगी जो कि शूरवीर महान् पराक्रमी राज राजेश्वर होगा। एक दिशा में फैलने वाली प्रसिद्धि कीर्ति' कहलाती है। अर्थात् दान से होने वाली प्रसिद्धि कीर्ति कहलाती है। समस्त दिशाओं में फैलने वाली प्रसिद्धि 'यश' कहलाता है अथवा संग्राम से होने वाली प्रसिद्धि यश कहलाता है। तएणं सा धारिणी देवी अदीणसत्तुस्स रणो अंतियं एयमट्ठ सोच्चा णिसम्म हट्टतुट्ठ जाव हियया करयलपरिग्गहियं दसणहं सिरसावत्तं मत्थए अंजलिं कटु एवं वयासी-एवमेयं देवाणुप्पिया! तहमेयं देवाणुप्पिया! अवितहमेयं देवाणुप्पिया! असंद्धिद्धमेयं देवाणुप्पिया! इच्छियमेयं देवाणुप्पिया! पडिच्छियमेयं देवाणुप्पिया! इच्छियपडिमिण्यमेयं देवाणुप्पिया! से जहेयं तुज्झे Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004199
Book TitleVipak Sutra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichand Banthiya, Parasmal Chandaliya
PublisherAkhil Bharatiya Sudharm Jain Sanskruti Rakshak Sangh
Publication Year2007
Total Pages362
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_vipakshrut
File Size7 MB
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