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विपाक सूत्र-द्वितीय श्रुतस्कन्ध ......................................................... ___विवेचन - धारिणी रानी ने अदीनशत्रु राजा से कहा - हे देवानुप्रिय! सुख शय्या पर सोती हुई मैंने स्वप्न में अपने मुंह में प्रवेश करते हुए एक सिंह को देखा है। हे स्वामिन! इस महास्वप्न का मुझे क्या फल प्राप्त होगा?
तएणं से अदीणसत्तू राया धारिणीए देवीए अंतियं एयमढे सोच्चा णिसम्म हट्टतुट्ठ जाव हियए धाराहय-नीव-सुरभिकुसुम-चंचुमालइय-तणुऊससियरोमकूवे तं सुविणं ओगिण्हइ ओगिण्हित्ता ईहं पविसइ, ईहं पविसित्ता अप्पणो साभाविएणं मइपुव्वएणं बुद्धिविण्णाणेणं तस्स सुविणस्स अत्थोग्गहणं करेइ। तस्स सुविणस्स अत्थोग्गहणं करित्ता धारिणीं देवीं ताहिं इट्ठाहिं कंताहिं जाव मंगल्लाहिं मिउमहुरसस्सिरीयाहिं गिराहिं संलवमाणे संलवमाणे एवं वयासी-॥१७७॥
कठिन शब्दार्थ - धाराहय-नीवसुरभिकुसुमचंचुमालइयतणुऊससिय रोमकूवे - जैसे मेघ के जल की धारा के गिरने से सुगंधित कदम्ब वृक्ष खिल जाता है वैसे ही राजा का शरीर भी पुलकित हो गया और रोंगटे खड़े हो गये, ईहं - ईहा-ज्ञान की, साभाविएणं - स्वाभाविक, मइपुव्वएणं - मति पूर्वक, बुद्धिविण्णाणेणं - बुद्धि विज्ञान से, अत्थोग्गहणं करेंइ - अर्थ
को जाना।
भावार्थ - उस समय धारिणी रानी के पास से उपरोक्त विषय को सुन कर और हृदय में धारण करके अदीनशत्रु राजा का हृदय हर्षित और संतुष्ट हुआ। जैसे. मेघ के जल की धारा के गिरने से सुगंधित कदम्ब वृक्ष खिल जाता है उसी प्रकार राजा का शरीर भी पुलकित हो गया
और रोंगटे खड़े हो गये। इस प्रकार राजा को उस स्वप्न का अवग्रह हुआ अवग्रह होने पर ईहा ज्ञान की प्रवृत्ति हुई। ईहा की प्रवृत्ति होने पर अपने स्वाभाविक मति पूर्वक अर्थात् मतिज्ञान से उत्पन्न होने वाले बुद्धि विज्ञान से उस स्वप्न के अर्थ को जाना। उस स्वप्न के अर्थ को ग्रहण करके -उन इष्टकारी, कांतकारी, मंगलकारी यावत् मृदु, मधुर और सश्रीक शब्दों से संभाषण करता हुआ अदीनशत्रु राजा धारिणी रानी से इस प्रकार कहने लगा।
विवेचन - धारिणी रानी के द्वारा कहे हुए स्वप्न को सुन कर राजा अति हर्षित हुआ। अपने मन में स्वप्न के अर्थ का विचार कर राजा रानी से इस प्रकार बोला -
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